रविवार, 27 अक्टूबर 2024

आवऽ लवटि चलीं जा!

(डॉ॰ अशोक द्विवेदी के लिखल उपन्यास अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित भइल रहुवे.)




भाई का डंटला आ झिरिकला से गंगाजी के सिवान छूटल त बीरा बेचैन होके अनासो गांव चौगोठत फिरसु. एने ओने डँउड़िआइ के बगइचा में फेंड़ा तर बइठि जासु आ सोचल करसु. सोचसु का, खाली उड़सु. कल्पना का महाकाश में बिना सोचल-समझल उड़सु. एह उड़अन में कब पाछा से आके पनवा शामिल हो जाव, उनके पता ना चले. आम के मोजरि दनात रहे, ओकर पगली गंध बीरा के न जाने कवन मादक निसा में गोति-गोति देव. पनवा के दमकत गोराई, ललछौंही मोहखरि, लसोरि तिरछी चितवन आ गदराइल देहिं, रहि-रहि के उनके अपना ओर घींचे लागे. रहि-रहि के उनका मन परि जाव ऊ इनार आ पियास लागि जाव. कंठ सूखि के अगियाये लागे त उठि के घरे चलि देसु.


ई ना रहे जे पनवा चैन से होखे. बैखरा लेले रहे ओकरा के. बीरा के पाम्ही आवत गोल चेहरा, गोर गेंठल देंहि, पियासल आंखि, आ लकाधुर बोली रहि-रहि के ओकरा के बहरा दउरा देव, बाकिर बीरा ना लउकसु. रेता में उछरि के गिरल मछरी लेखा तलफत पनवा के सन्तोख होखो त कइसे? बीरा कवनो गांव-घर के त रहलन ना.


बलुआ से थोरिके दूर बीरा के गाँव रहे सिमरनपुर. बाप-मतारी रहे ना. छोट्टे पर से बड़ भाई आ भउजाई के ऊ बाप-मतारी का रूप में देखत आइल रहलन. एगो बहुत छोट गिरहस्त रहे लोग ऊ. दू बिगहा के खेत, खपड़ा के घर, एगो बैल आ एगो भइंसि - इहे उनकर पूंजी रहे. बीरा दुसरा दर्जा का बाद पढ़बे ना कइलन. अइसन ना कि उनकर मन पढ़े में ना लगल. घर के परिस्थितिए अइसन रहे. भउजाई भइंसि चरावे केकह देसू, खेत में भाई के खाना-खेमटाव ले जाये के कहि देसु आ एही तर धीरे धीरे अपनहीं पढ़ाई छुटि गइल.


जवानी के उठान आ चमक अईसन ह कि करियो कलूठ आ लंगड़ो-लूल सुघ्घर आ भरल-पूरल लागे लागेला! फेर त बीरा के पुछहीं के ना रहे - गेहुँवा रंग, छरहर-कसरती देंहि. अपना उमिर का लड़िकन में सबसे पनिगर आ चल्हांक. नवहा लड़िकन का संगे गंगाजी का सरेंही ले भइंसि घुमावत, कबड्डी-चिक्का खेलत बीरा के दिन बड़ा ढंग से बीतत रहे. बलुआ गाँव से होत, गंगाजी का तीर ले के आवाजाही में, पता न कब उनकर आमना-सामना पनवा से भइल आ कब उनका भीतर प्रेम के पातर स्रोत फूटल, केहू ना जानल. सोता से झरना बनल तब्बो यार-दोस्त ना समुझलन स, बाकिर उहे प्रेम जब नदी के लहरन अस लहरे आ उमड़े लागल त सभे जानि गइल.


नदी के बेग आ बहाव के रोके खातिर बीरा के घर-पलिवार आ पनवा के खनदान हुमाच बान्हि के परि गइल. बान्हे-छान्हे के कवन तजोग ना भइल, बाकि दू पाटन का बीच में बहे वाली नदी भला एक्के जगहा कइसे रुकि जाइत? भाई भउजाई के दिन-रात हूँसल-डाँटल आ धिरावल बीरा के बहुत खराब लागल रहे - अतना खराब कि ओघरी ऊ लोग. उनकर सबसे बड़ दुश्मन बुझाए लागल. चार पांच दिन से बेचैन होके डँउड़ियाइल फिरत बीरा मन के जतने आवेंक में करे के कोसिस करसु, ऊ अमान बछरु लेखा कूल्हि छान्ह पगहा तुरा के भागे लागे. बीरा कतनो महँटियावस, कतनो भुलवावस बाकि मन में रचल-बसल पनवा के खिंचाव उनके कल से ना रहे देव. जहाँ कहीं एकन्ता-अकेल बइठस उनके पनवा केमिलला के एक-ए-गो घटना मन परे लागे.


बरिस-बरिस के तिहुवार ह फगुवा. बेयार डोलत कहीं कि लइका-छेहर, बूढ़-जवान सभका पर फगुनहट चढ़ि जाला. दस दिन अगहीं से भरबितनो रँगे-रँगाए सुरु क दिहन स. ननद-भउजाई आ देवर तिनहुन के रोआँ-रोआँरंग बरिसावे लागी.लसोर तिरिछी नजरि डोले लगिहें स आ अब्बर-दुब्बर करेजा में गड़ि के करके लगिहें स. फेरु अस मीठ दरद ठी कि बुढ़वामंगर बितलो पर बेचैन करी. ई बेचैनी तब अउरी बढ़ि जाई जब पहिल प्रेम के दरियाव भीतर उमड़त होखे.


तेहू में ओह दिन फगुवा अपना पूरा रंग में बलुआ गाँव पर चढ़ि गइल रहे. घर-आँगन-दुआर, खेती-खरिहान चारु ओर रंग बरिसत रहे. किसिम-किसिम के रंग. छोलक झाल का संगे होहकार मचावत नवछेड़ियन के गोलि चउधुर का दुआरे पहुँचल त लम्मे भइल चउधर टोकलन, '‍बड़-बूढ़ देखि के रे बचवा!' फेरु लड़िकन के लकुराध से कुछु डेराइले उ ओसारा का ओर जाए लगलन. उनका हाथ में गुड़गुड़ी रहे. करीमन काका चउधुर के पुरान सँघतिया रहलन. चउधुर के घसकल देखि के, एगो लइका का हाथ से रंग के बल्टी झपटलन आ कल्ले-कल्ले धवरि के चउधुर का पीठी भभका दिहलन. हल्ला मचि गइल. चउधुर अनखाइले कुछु कढ़ावहीं के रहलन कि करीमन काका नौछेड़ियन के उसुकावत पिहिकारा छोड़ि दिहलन -


फागुन में,
फागुन में बूढ़ देवर लागे,
फागुन में....


ढोल धिनधिना उठल. झाल झनझनाए लगली स. करीमन के कर्हियांव लचकावल देखि के चउधुरी के खीसि बुता गइल. उ ठहाइ के हँसि दिहलन. ठेका टूटल देखि के करीमन काका नौछेड़ियन के ललकरलन, 'जवनिये में मुरचा लागि गइल का रे?' ई बाति बीरा अस नवहा के छाती में समा गइल. उ झपटि के आगा कूदल, 'अ र् र् र् कबीर ऽऽ....!' कवाँड़ी के पल्ला तर लुकाइल फँफरा मुहें झाँकत पनवा के हँसी छूटि गइल. अभिन त रेखियाउठान रहे बीरा के. गोर गठल सरीरि. सुन्नर सुरेख चेहरा. गाले ललका रंग. नवहन का गोल में उ लचकि-लचकि के गावे सुरू क देले रहलन .......


केकरा हाथ कनक पिचकारी
केकरा हाथे अबीर?
अरे केकरा हाथे अबीर!
राधा का हाथ कनक पिचकारी
मोहन का हाथे अबीर!


गावत-बजावत हुड़दंग मचावत नवहन के गोलि आगा बढ़ि गइल. बीरा के गवनई आ मस्त थिरकन पनवा का आँखी समा गइल. कल्पना का सनेहि से ओकर मन गुदुराए लागल. बाकि बाप के दुलरुई आ मुहलगुवी पनवा के गोड़ लाजि बान्ह लिहलस. बहुत देरी ले कँवाड़ी के पल्ला धइले ठाढ रहि गइल. बेहोसी में ऊ चलल चाहे बाकि ओकर डेग ना आगा जाव ना पाछा. अजब हालत हो गइल रहे पनवा के.


गाँव घुमरियावत दुपहर भइल. गोल फूटे लागल. बीरा सोचलन कि एही पड़े नहइले चलल जाव. गंगाजी नियरहीं रहली. उ अपना सँघतिया से सनमति कइलन. सहुवा किहाँ से उधारी साबुन किनाइल आ खोरी-खोरी, हँसत बतियावत चल दिहल लोग. बीच-बीच में बोलबजियो होत रहे.


चउधुरी के दुअरा, इनार पर मेहरारू ठकचल रहली स. बेदी के हेठा घोरदवर मचल रहे. निहुरि के कनई उठावत पनवा के नजरि बीरा पर गइल. दूनों जना के नजर मिलली स. पनवा लाजे कठुवा गइल. बीरा के आँखि कनई से होत-हवात पनवा के दहकत गाल पर ठहरि गइल. पनवा के थथमी टूटल. उ लजाते-लजात कनई उठवलसि आ छपाक से एगो मेहरारु पर दे मरलसि. मेहरारु पाँकि में पूरा सउनाइल रहे. उ हँसत झपटल त पनवा फट से फेरू निहुरि गइल. बीरा एह चंचल उफनत रुप के इन्द्रजाल निहारे में भुला गइलन. उनुका आँखि के तार टूटे के नांवें ना लेइत, अगर उनुकर सँघतिया ना टोकित, ' का हो, डेगे नइखे परत का?'


बीरा चिहुँकि के चाल त तेज क दिहलन, बाकिर उनका भितरी पनवा का ललछौंही गोराई के चंचल छवि किलोल करत रहे. रहि रहि बेचैन करत रहे पनवा के लसोरि मीठि चितवन.


रंग धोवाइल, रंग चढ़ल आ अइसन चढ़ल कि बीरा डगमगाए लगलन. भाँग के नसा में बारह बजे राति ले गवनई कइला के बाद जब ऊ घरे पहुँचलन त निखहरे खटिया पर फइलि गइलन. आँखि मुनाइल रहे बाकिर कनई उठावत, निहुरल पनवा के समूचा देंहि के उमड़त यौवन उनका सोझा देरी ले थरथरात रहे. बीरा हहाइल-पियासल आँखि का अँजुरी से ओह उमड़त सुघराई के पीए लगलन. पियते पियत कब दूनी भोर हो गइल आ कब उ नीनी गोता गइलन, पते ना चलल.


घाम भइला, जब भइजाई झकझोरलसि त नीनि टूटल. 'का हो बबुआ राति ढेर चढ़ि गइल रहुवे का? कब आके सूति गउवऽ? कुछु बोलबो ना करुवऽ. हम खाएक ध के राति ले अगोरत रहुवीं.' बीरा मुस्कियात बोललन, ' सांचो रे भउजी? केवाड़ी त बन्न रहुवे?' आ ठठाई के हँसि देहुवन. भउजाई लजा के भितरी भागि गउवी. बीरा देरी ले मुस्कियात रहुवन.


फगुवा बीतल त बीरा के गंगा के कछार घोरवठे क सूर चढ़ल. उ रोज खाइ-पी के निकल जासु. हरियरी से जीउ उचटे त बलुआ गाँव के पकवा इनार पर आके खड़ा हो जासु. पूरब का ओसारा में बइठल पनवा के जइसे एकर पूरा पता रहे कि बीरा के पानी पिए के ईहे जूनह. उ आधा घंटा पहिलहीं से ओसारा में आके कुछ न कुछ काम-धंधा सुरु क देव.


अक्सर खँभिया का ओर बीरा के आवत देखि के पनवा के अगोरत मन उछरे लागे, बाकि ऊ जान बूझि के मूड़ी गोतले रहे. बीरा का खँखारते ओकर मूड़ी उठे आ नजर मिलते बीरा सिटपिटा जासु. आखिर लजाते लजात बीरा के कहहीं के परि जाव, 'तनी पानी पियइबू हो?' पनवा एक हालि तरेर के देखे फेरु बनावटी खीसि में बोले, 'तहरा रोज पियासे लागल रहेला?' फेरू ऊ भितरी से डोर बाल्टी के लेके छने भर में बहरा निकलि आवे.


ओकरा इनार पर पहुँचत-पहुँचत किसिम-किसिम के बिचार बीरा का मन में फफने लागे. कबो पनवा के साँचा में ढारल सुघ्घर देंहि पर, कबो ओकरा बेफिकिर जवानी पर, कबो ओकरा जोमिआइल चाल पर आ कबो ओकरा माँगि में भरल सेनुर पर. बाकिर विचार के बवंडर गुर्चिआए का पहिलहीं छिटा जाव. 'काहो, पानी पियबऽ कि हम जाईं?' आ जब चिरुआ में पानी गिरे लागे तब बीरा के आंखि अनासो निहुरल पनवा के गरदन के नीचा टँगा जाव. कनपटी दहके लागऽ सन आ पियास गहिर होत चलि जाव. जब बाल्टी के पानी ओरा जाव त बीरा के करेजा जुड़ाए का बदला अउरु धधके लागे.


बाल्टी लटकावत पनवा अगराइ के पूछे, 'का हो अभिन तोहार पियास ना गइल?' बीरा अतिरिपित नियर मूड़ी डोला देसु. का जाने काहें उनुकर ओंतरे ताकि के मूड़ी डोलावते पनवाके देंहि चिउँटि रेंगे शुरु क द सन. ऊ भितरे-भितर कसमसाइ के रहि जाव. ओफ्फ नजरि ह कि बान........ . थिराइलो पानी हँढोरि देले बीरा के इ नजरि. पनवा कुछ देर त सम्मोहन में बन्हाइल रहे, बाकि टोला-महल्ला के सुधि अवते ओकर सम्मोहन टूटि जाव. ऊ जल्दी जल्दी भरल बाल्टी उठावे, डोर लपेटे आ तिरछे ताकत घूमि के चल देव.


बीरा जगहे प खड़ा हहरत ताकसु - आ तबले ताकति रहि जासु जबले पनवा अपना ओसारा से होत घर में ना हेलि जाव.


ओह दिन बीरा जब कान्हे गमछा आ लउर लिहले अचके में आके इनार पर खाड़ भइलन, त भईंस के लेहना गोतत पनवा के आंखि में एगो खास किसिम के चमक उठल, मन पोरसन उछरि गइल. अगर लोक-लाज के भय ना रहित त ऊ धवरि के बीरा के अँकवारी में भरि लेइत.


बीरा आंखिये-आंखी पुछलन, 'का हो का हाल बा?' पनवा आंखिये-आंखी कहलस, 'खूब पूछ तारऽ. कुल्हि करम त क घललऽ.' फेर बिना कुछ बोलल बतियावल ऊहे बालंटी, ऊहे डोर, ऊहे इनार. पानी पियत खान बीरा के ओहीं तरे निहारल आ पनवा के सकुचाइ के अपना भीतर बटुराइल......फेर थथमि के आंखि तरेरल.


आजु बिना कुछ पुछले बीरा के बोली फूटल - 'तहार गुलामियो बजइतीं, अगर नोकरी मिलि जाइत?' पनवा अचकचा के तकलस, झूठही खिसिअइला के भाव देखवलस आ मुस्कियाइ के बल्टी इनार में छोड़ि दिहलस. बल्टी सरसरात नीचे चलि गइल. ओने बाल्टी बुड़बुड़ाइल एने पनवा के बोली सुनाइल, 'अतना बरियार करेजा बा तोहार? दम बा त बाबू से बतियावऽ!'


बीरा के बुझाइल कि इ चुनौती पनवा उनका पौरुष आ साहस के दे तिया. नेह के निश्चय बड़ा दृढ़ होला. तब अउरू, जब जवानी में जोमहोखे. ऊ दृढ़ होके कहलन, 'अब त समनहीं आई. बाकिर अतने डर बा कि आगि लहकला का पहिलहीं तु पानी जिन छोड़ि दीहऽ.'


पनवा बाल्टी के बान्हन खोलत रहे. ओकर मन कइल जे खोलि के कहि देव. कहि देव कि जरुरत परी त हम तहरा खातिर इ घर दुआर महतारी-बाप कुल्हि छोड़ देब. बाकिर ऊ अतने कहलस, 'दोसरा के सिच्छा देबे का पहिले अपना के अजमावऽ!' अतने में रामअंजोर चौधरी दुआरे आ गइलन. बीरा इनारे भइल गोड़ लगलन, 'पायँ लागी बाबा!' चउधुर कुछ कहितन एकरा पहिलहीं पनवा बल्टी लेले निहुर गइल, 'ल पियऽ!' बीरा फेरु पानी पिए लगलन.


चलत खान चउधुर बोलवलन, 'सुनि रे बचवा!' पहिले त बीरा डेराइ गइलन. धीरे धीरे फाल डालत, सोचत-गुनत चल दिहलन. नियराँ गइला पर खुलासा भइल, 'बड़ा फजीहत हो गइल बा एघरी. अब ई खेती के लउँजार संभरत नइखे. बुढ़ापा का कारन हम सकि नइखीं पावत. कवनो चरवाहा नइखन सँ भेटात. बीरा, तहरा किहाँ कवनो भेटइहन स?' जवने रोगिया के भावे तवने वैदा फुरमावे! बीरा के मन माँगल इनाम मिल गइल. बाकि बड़ा अस्थिराहे कहलन, 'बाबा हम परसों ले कुछ जोगाड़ बान्हब! एक दू आदमी बा, सवाच के बताइब!'


गाँव का नियरा पहुँचत-पहुँचत बीरा का दिमाग में पूरा योजना तैयार हो गइल रहे. 'हमहीं चौधरी किहाँ चरवाही करब!' बीरा जइसे पूरा तय क के बुदबुदइलन. उनका आँखि मे पनवा समाइल रहे. हर घरी ओकरा के देखला आ नगीच पहुँचला के ललक उनके बेकल कइले रहे. भगवान सहाय बाड़न तब्बे न चउधरी का मुंह से ई बात निकसल हऽ. उनका भीतर हलचलो होत रहे. ऊ डेरासु त इहे सोचि के, कि पनवा बियुहती ह. ओकर खियाल उनके छोड़ देबे के चाहीं. बाकिर ओकरे बोली..... उ चुनौती. उनुका बुझाइल जे पनवा मेहना मार तिया - 'ईहे मरद बनल रहलऽ हा. प्रेम हँसी ठठ्ठा ना हऽ. करेजा के पड़ा पोढ़ करे के परी. केहू का क ली? मरद बाड़ऽ त आवऽ तलवार का धार प चलि के देखावऽ. प्रेम कइले बाड़ऽ त भागत काहें बाड़ऽ? ताल ठोंकि के मैदान में कूदऽ!'


दू-चार दिन बीतत-बीतत बीरा चउधुर से बतिया लिहलन. बतिया का लिहलन, पूरा इत्मीनान करा दिहलन. चउधुर सोचलन कि बूझला खेत बारी कम बा आ भाई से कुछ खटपट बा, एही से बीरा खुदे चरवाहि करे खातिर सकार लिहलन. दू दिन बाद चउधुरी किहाँ बीरा काम करे शुरु क दिहलन. उनका भीतर जब बेचैनी होखे त केवनो ना केवनो बहाना से गंगाजी का ओर बाड़ में निकल जासु. कबो गंगा नहाये, कबो खेत घूमे. चौधरी का ना बुझाइल कि बीरा उनुका चरवाही का संगे लेहना-पताई, गोरू-बछरू, खेत-बधार सब कुछ कइसे सँभारि लिहलन? ऊ सोचलन, हम ठहरली बूढ़ आदिमी. अकेल जीउ, एने ओने डँउड़िअइला से फुरसते नइखे. पनवो के भीरि कम होखी. पनवा के त जइसे मन माँगल मुराद मिलि गइल होखे. खुसी के मारे डेग एने से ओने परे लागल. ऊ फुदकत फिरे. जेके देखे खातिर छछाइल रहे, ऊ अब चउबीसो घन्टा के सँघाती बनि गइल रहे.


धीरे-धीरे बीरा चउधुरी का घर के जिम्मेदारी कपारे ओढ़ि लिहलन. पनवा के त सपने फुला गइल रहे. ऊ उतराइल फिरे. ओकरा निगिचा आवत-जात, बोलत-बतियावत बीरा ओकर अतना आपन हो गइलन कि दुइयो घरि अन्हे भइल पहाड़ लागे. टोला-परोसा के आँखि गड़के लागल. मेहरारु जात आगी के लुत्ती होले. हवा लागत कहीं कि लहरि उठल. लोग पनवा का एह बदलाव प गौर करे लागल. बीरा आ पनवा के एक ए गो हरकत पर आँखि सिकुरे-फइले लगली स. गाँव टोला कवनो बड़ शहर त होला ना कि कुछ बात होखे आ हवा ओके ना फइलावे.


आखिर चिनिगी से सुनुगत सुनुगत एक दिन धधोक उठिये गइल. कानाफूसी, खुसुर-फुसुर से होत, बात चउधुर के काने लागल. चउधरि लाल भभूक भइलन बाकिर पनवा खुल्लमखुल्ला कूल्हि बेजायँ अपना कपारे ओढ़ि लिहलस. चउधुर के घुड़कला पर कहलसि, 'ए बाबू! कूल्हिं दोस हमार हऽ! मारऽ काटऽ हमरा के, बीरा के कुछऊ कहबऽ त ठीक ना होई.' चउधुर के भाला ले ढेर घाव लागल. ऊ खून के घोंट पी के रहि गइलन. मन थिराइल त पनवा के समझवलन, 'लरिक बुद्धि में जिन परु. हम आजु ले आपन कुल्ही लाड़-प्यार तोरे के दिहलीं. आज हमार माथ कटाता. हमार इज्जत तोरा हाथे बा पनवां. अबहियों कुछ बिगड़ल नइखे.' बाकिर पनवा त पिरीत का दरियाव में बहत रहे. ऊभ-चुभ करत, खालि अतने कहलसि, 'तहार कुल्हि बात अपना जगहाँ ठीके बा बाबू. बाकिर बीरा से बिलग होके हम मुवले समान बानी. अगर हमरा के जीयत देखल चाहऽ त ए ममिला में आपन फैसला बदल लऽ.'


चउधुर के बार उजरात रहे. ऊ सोचलन ....... हमरे गलती से ई कूल्हि बखेड़ा खड़ा हो गइल. अबहियो से संभरि सकेला. हमरा जल्दी से जल्दी पनवा के गवना क देबे के चाही. ऊ उठि के नाऊ किहां चलि दिहलन.


चौधरी के चरवाही बीरा के जिनिगी बदलि दिहलस. ऊ पनवा से लम्मा रहलन त ओकर रूप का खिंचाव में बन्हाइल रहलन. जब निगिचा अइलन त रूप के दवँक उनका दिल-दिमाग दूनों के तपाइ के निखारि दिहलस. अब हाल इ रहे कि टोला-महल्ला, समाज केहू के परवाह ना ना रहि गइल उनुका.


का जाने कइसन आन्ही आइल आ उनके उड़ा ले गइल. बीरा गंगा जी का अरार पर बइठि का इहे सोचत रहलन. रूप आ प्रेम के खिंचाव पर, उनकर दसा का से का हो गइल। कवन-कवन अछरंग ना लागल? सब थुड़ी-थुड़ी करऽता, तेवन एकोर, चउधरी कतना दुखी बाड़न? पनवा के बिदाई खातिर ओकरा ससुरा के लोग अलगे उनकर मूड़ी जँतले बा. आ पनवा बिया कि ओकरा कुछू के परवाहे नइखे. काल्हिए से फेंटले बिया, 'चलऽ इ गाँव छोड़ि के कहीं लम्मा भागि चलीं जा.'


कहाँ भागि चलीं? आजु ले कहीं बहरा गइलीं ना. गाँव के ढेर लोग कलकत्ता बा लोग. आसाम में उनकर एगो संघतिया बा. बाकिर इ सोचला से फायदा का? बीरा का भीतर तनाव अउरी बढ़ि गइल. दिमाग में पनवा के निहोरा गूंजे लागल 'हम तहरा बिना एको छन ना जीयब. ढेर तंग करबऽ त माहुर खा लेब.'


का जाने कवन मोह बा ओकरा से कि छोड़लो नइखे बनत आ छोड़ि दिहला पर जियलो कठिन बूझाता. 'का, का ना भइल बीरा? चउधुर मारे परलन, गांव थुथुकारल, भाई गरियवलस, पंच डंड धइलस ........ पनवां तूँ जीये ना देबे हमरा के!' ऊ तनी जोर से कहलन. गंगा के लहर उछाल मारत आइल आ नीचे अरार से टकराइ के छितरा गइल. सुरूज के किरिन तेज हो गइली सन. घाम तिखवे लागे लागल त बीरा कपारे अंगौछी बान्हि लिहलन. लहरि एक हालि फेरू आइल आ अरार से लड़ि के छिटअ गइल 'बदरकट्टू घाम सचहूं बड़ा तिक्खर होला!' उ बुदबुदइलन.


बीरा के एक लट्ठा पाछा ले दरार परि गइल. बाकिर अपनेमें गुमसुम, कहानी बनत, बीरा के इचिको खबर ना रहे. कहानी बढ़ल जात रहे. लहरि जब चले त बुझाव कि कवनो ओकर कूलहि घाव सहि के ओके छीटि देत रहे.


'लड़ऽसन! खूब लड़ऽसन!!' बीरा जोर से कहलन. फेरु जइसे मन परल 'हमहूँ अइसहीं नू बानीं. एही अरार लेखा. सभ चोट सहि के घठाउर हो गइल बानीं!' बीरा के का पता कि सांचो उ अरार पर बइठि के अरारे हो गइल बाड़न आ उनका के भीतरे-भीतर काटत जाता. कब एगो कड़ेराह धक्का लागी आ ऊ ढहि जइहें? ई खुद उनहीं के नइखे पता. मन में बवंडर चलत रहे आ तनिको थम्हे पटाये के नाँव ना लेत रहे.


पाछा के दरार धीरे-धीरे ढेर फइल गइल. दू चार बार धक्का के अवरू देरी रहे. पनवा फेरु मन परल. बीरा का भीतर जइसे ऊखि के एक मूट्ठी पतई जरि गइल. आंच गर ले चढ़ि आइल. उ अपना हालत पर मुस्किअइलन. सूखल हँसी फेफरिआइल ओठ पर फइल गइल. 'दुर मरदे! तोरा ले बरियार करेजा त पनवा के बा! मेहरारु होइके अडिग. सगरो बवाल, सगरो दुतकार के जवाब दु टूक, 'हँ बीरा हमार कूल्हि ऋउवनि!' 'वाह रे पनवा.' अनासो उनका मुँह से निकलि गइल.


दरार अउर फइल गइल. बीरा के का पता कि सोझा से मार करत लहरन के गिरोह अब अपना सफलता का जोस में आखिरी बेर आव तिया. लहरि आइल आ कगरी के माटी हंढ़ोरि के लवटि गइल. उनुका तब बुझाइल जब पनवा झकझोर के उठवलस 'भँउवाइल बाड़ऽ का? एने दरार फइलल जाता आ तहरा कुछ फिकिरे नइखे?' पाछा देखते उ चिहा गइलन. झट से पनवा के फनवलन आ पाछे अपनहूं पार भइलन. अरार थसकल आ एक बएक भिहिला के लहरनमें समा गइल. हँड़ोरइला से ओतना दूर के पानी कुछ अउरी मटिया गइल.


पनवा दूनूं हाथ छाती पर धइले अब ले हांफत रहे. सांस थमल त बोलल, 'आज त तूं हमार जाने ले लेले रहितऽ! कहऽ कि हम उबिया के कवनो बहाना से, एने चलि अइनीहां. जान तारऽ उ दुआरे आके बइठल बाड़न स. बाबू बिदाई के तइयारी कर तारन. हम उनका के कहि सुनि के थाक गइलीं हां. अइनी हां त आपन जान देबे, बाकिर अचके में तहरा पर नजरि परि गइल हा.' पनवा उनका छाती में समा के सुसुके लागल. बीरा कातर हो के ऊकर पीठ सुहुरावे लगुवन. 'पागल अभिन हम जियते नु बानीं.हमरा रहते तें जान देबे. चलु आज तोरे बात रही. तु कहत न रहले हा कि चलऽ कहीं लम्मा भागि चलीं जा. हम तैयार बानीं. जहाँ कहबे तहाँ चलब.' भाववेग में ऊ कहते चलि गइलन. पनवा के हालत उनके फैसला करे के जइसे शक्ति दे देले रहे.


पनवा आपन भींजल पलक उठवलसि, ओकरा जइसे बीरा पर बिसवास ना भइल. ॡुचलस, 'संचहू?' 'हँ रे, सांच ना त जूठ!' बीरा ओके परतीति दियवलन. पनवा खुशी में मकनाइल, लपटा गइल बीरा से......... . जइसे फेंड़ में बँवर लपटे, ओकर हाथ बीरा के बान्हि लिहलस. नदी जइसे समुद्र में मिलि के अपना के भुला देले, ओघरी ओकरा किछऊ के चेत ना रहे. ना दीन के ना दुनिया के. बीरा टोकलन, ' अड़े तोरा नीक जबून किछऊ बुझाला कि ना? केहु देखी त का कही?' पनवा अलगा हो गइल. ओकरा फीका मुसकान में सगरी समाज के प्रति उपेक्षा के भाव रहे.


गाड़ी में मोटरी-गठरी लेले पनवा,बीरा का बगल में बइठल रहे. ओकरा भीटर एगो नया सँसार के सपना कुनमुनात रहे. बीरा ओ सपना से अलग कुछ दूसरे सोचत रहलन. उनका दिमाग में गाँव-जवार के उपहास आ अपमान घुमरियात रहे. ऊ सोचत रहलन........ चउधुर के ए बेरा ना त सबेरे जरूर मालूम हो जाई. अब त गाँव में उनकर मुँह देखावल दुसवार हो जाई. गवना करावे आइल पनवा के ससुर एको पद ना छोड़िहें चउधुर के. लोग कवन-कवन बोल ना बोली.


"का सोच तारऽ?" पनवा उनका के टोकलस. बीरा चिहुँकलन, बाकिर उनका मन के व्याकुलता कम ना भइल. "किछउ ना..." बीरा आपन आँख बन क के कपार सीट से टेकलिहलन. पनवा उनका देहि पर ओलरि गइल. मादक-स्पर्श के गुदगुदी में बीरा के कूल्हि चिन्ता-फिकिर गायब होखे लागल.


गुदगुदी जब रुकल त भविष्य के उदवेग लेसि दिहलस. बीरा फेर आँख खोलि के छत के घुइरे लगलन. उनका अपना ओह संघतिया पर पूरा भरोस रहे जवन आसाम रहे. ओही का अलम पर ऊ ओइजा पयान बन्हले रहलन. ओकर पता उनका पाकिट में चिंगुराइल परल रहे. पनवा साइत उंघाइ गइल. बीरा एखाली ओकरा अचरजकारी मोक आ निश्छल सुघराई के निहरलन. ओकर मुँह लरुवा गइल रहे. बीरा का मन में प्यार उमड़ल आ लमर सांस बनि के निकल गइल..... "बेचारी थाकि गइल बिया". ऊ सोचलन, आ ओकरा ओलरल देहि के अपना कान्ही प सम्हार लिहलन.


आसाम कवनो नियरा थोरे रहे. रात से बेर भइल आ सबेर से रात. एह बीचे भविष्य का ओह अनिश्चित अन्हार में बीरा के एक मात्र अलम उनका संघतिया के "पता" उनका साथे रहे. पनवा खातिर जेवनकुछ रहे, पहिलहीं से बीरा पर निछावर रहे. एह परदेश यात्रा में छुइ मुई बनल, मोटरी लेले उनका पाछा-पाछा चले त ढेर लोगन के नजरि बिछिल जाव. गँवई सुघराई आ सादगी में सँवरल देहिं पर आँखि गड़कि जा स. बाकिर बीरा के सुगठित सरीरि देखि के केहू के हिम्मत ना परे. एगो स्टेशन पर दुइ गो सिपाही बीरा के धइलन सऽ, बाकिर पनवा के निधड़क जवाब उन्हनी के चिरुकी हिला दिहलस. "तहन लोग के सरम-हया नइखे का। मरद-मेहरारू नइखे चिन्हात?" पनवा के तिक्खर बोली सुनते उन्हनी के रोब खतम हो गइल. बीरा पनवा का एह तेज रुप से खुदे अकबका गइल रहलन.


एक तोर त गाड़ी बदले के हड़बड़ी में गार्ड के डिब्बा भेंटा गइल. चढ़े के त बीरा चढ़ि गइलन बाकिर अधेड़ गार्ड खोदिया-खोदिया के बीरा का बारे में पूछे लागल. रहि-रहि के ओकर नजर पनवा पर गड़कि जाव. पनवा गुरमुसि के रहि जाव. ओकरा बड़ा बाउर लागे. गार्ड के तरक से जब बीरा गड़बड़ाए लगलन र पनवा का बोलहिं के परि गइल, "घर के इस्थिति ठिक ना रहल हा गाट साहेब! ओही से घर छोड़ै के परल हा. भागि के भरोस पर हमनी का मरद-मेहरारु देस छोड़ि दिहनी जा, अब आगे भगवान जानसु." गार्ड खरखाहि देखा के चुपा गइल बाकिर ओकरा मन में खुदुर-बुदुर हिखत रहे. ऊ हंसि के कहलस - "ई मरद हउवन! बड़ा सिधवा बाड़न बेचारू! परदेश में एंतरे गड़बड़इहन त काम ना चली." पनवा ओकर व्यँग के समझलस, बाकिर बीरा का ओरि आँखि तरेरि के जइसे उनका मुरखाई पर आँखिये-आँखी धिरवलसि आ फेरू मुस्कियाइ के हूँ कहि के चुपा गईल.


आसाम पहुँचला पर कवनो परेशानी ना भइल. उहवां बीरा के हिरऊ सँघतिया रहलन रमेसर काका के लड़िका, कौलेसर. खूब आव-भगत कइलन उनकर. बीरा के मुंहे, उनुकर कहानी सुनि के चिन्ता त भइल उनका, बाकिर ढाढस देत कहलन, "अब तूँ हमरा किहां चलिये अइलऽ त निश्चितन्त होके रहऽ. इहवां केहू कुछ ना बिगारी तहार. हम बड़ले नु बानी."


बीरा पनवा के संगे कौलेसरे किहां रहे लगलन. दू चार दिन क त सवाल रहे ना, कि पनवा कौलेसर का कोठारी में गुजर कर लीत. कौलेसर का चलि गइला पर ऊ एक दिन बीरा के टोकलस, "तहरा नीक-जबून कुछ ना बुझाला. एकहीं कोठारी में आखिर अतना अदिमिन के गुजर कइसे होई? दीन सुखरग बा त तू कौलेसर का संगे बहरा सूति जा तारऽ! बरखा-बूनी अइला पर का होई? ात त एही में भेड़ियाधसान होई न! एहूं तरे इहां ढेर दिन रहल नीक नइखेऽ! "बीरा मोट बुद्धि त रहले ना. फट से बूझि गइलन. पनवा सांच कहतिया.


रात खान, खाइ-पी के जब कौलेसर सूते चललन त बीरा कहलन, "ओंतरे त हमनी का एके बानी जा ए कौलेसर, बाकिर एगो कोठारी में क दिन गूजर कइल जाई? तहरो त फजिहते न होता. बरखा-बूनी अइला पर अवरु परेशानी हो जाई. कहीं एगो कोठारी देखि के दिउवा देतऽ त बड़ा नीक होइत." कौलेसर त पहिलहीं से फिकिरमन्द रहलन बाकिर संघतिया पर जाहिर ना कइल चाहत रहलन. पनवा के रहला से, उनका खाए पिये के त आराम रहे बाकिर सांच ई रहे कि ओह हालत में ढेर दिन चललो मुसकिल रहे. तब्बो उ अहथिरे कहे सुरु कइलन, "ए संगी! परदेश में केहूँ तरे गुजर बसर करे के चाहीं, फेरु अभी त तूँ कहीं नोकरी नइखऽ करत. कोठारी के किराया लागी. पहिले नोकरी त मिले द. कोठरियो के इन्तजाम हो जाई. हम तहरा खातिर एक दू जगह बतियवले बानी. कहीं नोकरी धरा जाए द."


अभी कुछ दिन बीतल होई. कौलेसर का सिफारिस से बीरा के एगो सेठ किहां दरबानी मिल गइल. साथे साथ कोठरिया के इंतजाम हो गइल. बीरा पनवा के लेके अपना सेठ किहां चलि अइलन. सेठ उनका के अपना हाता के एगो कोठरी देइ दिहलस. तनखाह तय भइल पाँच सौ पचास रुपया. मोका पर उहे ढेर रहे. बीरा का संगें-संगे पनवा खुश रहे.


बाकिर ज्यों-ज्यों दिन बीते लागल, ओह रुपया के पोल खुले लागल. सुबिधान भोजनो महाल रहे दूनो परानी के. कबो चाउर रहे त दाल ना, कबो रोटी रहे त तरकारी ना. जाड़ के दिन रहे. बीरा सेठ के पुरान कम्मर पर दिन काटत रहलन. पनवा से बरदास ना भइल त बीरा से कहलस, "एगो नाया कम्मर काहें नइखऽ कीनि लेत। ए फटहा कम्मर से क दिन काम चली? जाड़ो बढ़े लागल." बीरा ओकर पीर समझलन बाकिर पइसा के महमार देख के महंटिया गइलन.


दू चार दिन बाद पनवा फेरु पाछ धइलस. कुछ समझे बूझे लऽ ना का। आखिर कमरवा कहिया किनबऽ? हमहूं त हइ फटही लुग्गा साटि के रात काटऽतानी." बीरा फिकिर में परि गइलन. पनवा जानत रहे किकम्मर काहें नइखे आवत। ऊ मोटरी खोलि के ओमे से अपना पछुवा निकललस आ बीरा के हाथे ध दिहलस. बीरा भौँचक! भकुवा के ओकर मुंह ताके लगलन. पनवा झिरिकलस, "भकुवा मत. जिनगी रही त अइसन अइसन कतने पछुवा आई जाई. देहिंया ले कीमती इहे बा? एकरा के बेंचि के एगो कम्मर कीनि लऽ!" ना नुकुर करत आखिर बीरा के मानहीं के परल.


बीरा कौलेसर किहाँ गइलन त ऊ ना भेंटइलन. लचार होके अकेलहीं बजारे चलि दिहलन. पूछत-पाछत एगो सोनार का दोकानी बइठलन. सोनार चलता-पूर्जा रहबे करेलन स. बीरा के निछट गँवार आ सीधा साधा चेहरा से, अनुभवी सोनार का बूझत देरी ना लागल कि आसामी बुद्धू बा. पांच सौ बीस रुपया के पछुवा पर कतरनी चलावत-चलावतऊ दाम दूइ सौ कइलस त बीरा के झूझूंवावन बरल. उ कहलन, "हमार पछुवा द ए भाई, हम दुसरा जगह बेचब". आसामी फूटल देखि के सोनार लासा फूसी लगावे शुरु कइलस, "रउवा सोझिया आदिमी बानी. दोसर केहू हमरा ले ढेर दाम थोरे दे दी. हमरा बात पर बिसवास करी. विश्वास पर दुनिया टिकलि बा. ओंतरे राउर मरजी". बीरा के मन आग-पाछ होत रहे. सोनार बुझि गइलकि ओकर बात सटीक बइठलि बीया. ऊ कुछ रुपिया अवरु अधिका बढ़ाई के रुपिया गीन दिहलस. बीरा तीन सौ सत्तर रुपिया लेके उयि गइलन.


कम्मर किनला का बाद बीरा के लगे एक सौ तीस रुपिया बांचल. उ पचास रुपिया में पनवा खातिर एगो लुग्गा किनलन आ घर के राह धइलन. लवटत खा उनुका मन परल कि कई दिन से बे तियने-तरकारी के कटऽता. ऊ खाली आलू आ पियाज लिहलन. किरिन बूड़त-बूड़त जब घरे अइलन त पनवा लुग्गा किनला खातिर उनका के खूभ झंपिलवलस. ओंतरे ओकरा भीतर बीरा खातिर सनेह लहरियात रहे. सोचत रहे कि बीरा ओकर केतना खेयाल राखऽ ताड़न. बीरा बाँचल रुपिया पनवा के देत कहलन, "ल! अब सब्बुर हो गइल नऽ!"


ओघरी सेठ कहीं बाहर गइल रहे. बीरा संझिये से गेट पर बइठल रहलन. भाला देवाल पर ओठँघावल रहे. एगो त माघ के टुसार, ऊपर से सन् सन् हवा चले त बुझाव कि देंहि अंगरि जाई. पनवा उनका के कहत थाकि गउवे बाकि ऊ कम्मर नंहिए ले अउवन. उनका अब जाड़ लागत रहुवे. गांव रहित त पतई पुअरा फूंकि के आग ताप लेतन. ईहां कउड़ के सुनगावो। कउड़ का मन परते उनका दिमाग में हाता का आरी-आरी फेंकाइल लकड़ी इयाद परुवी सन. उ उठि के अन्हारे टोइ-टोइ लकड़ी बटोरे लगुवन.लकड़ी बटोरउवे त आगि के फिकिर भउवे. टाइम बारह से कुछ उपर होत रहुवे. सोचुवन आगी सुनगा लेब त तापत-तूपत सबेर हो जाई बाकि आगि आवो त कहाँ से? उ कोठारी का ओर चलि देहुवन.


कोठारी के कंवाड़ी बन रहुवे. बीरा धीड़े धीरे जंजीर खड़कउवन त भितरी से पनवा के बोली सुनउवे, "के हऽ?" बीरा ओकरा आवाज के कंपकंपी महसूस करत धिरही से सन्तोष दिहुवन, "हम हईं हो, बीरा!" बोली सुनतहीं कहीं कि कवाड़ी फटाक से खुलि गउवे. पनवा चिहाइले कुछ पुछहीं के रहुवे, तले बीरा पूछि दिहुवन, "अभिन जागले रहलू हा?" पनवा उदास मुसकान में बोलुवे, "नीन त रोजे तूँ लेके चलिजालऽ. अकेल जीउ घबड़ाइल करेला. कइसे कइसे रात कटेले, एकर मरम हमार हिरदया जानऽता!"


बीरा ओकर तड़प महसूस करुवन. पनवाका सटलासे उनका भितरी कुछ सुनुगे लगुवे. देहीं के जामल खून पनवा के कंपकंपी देखि के दउरे लगुवे. ऊ पनवा के अँकवारी में भरत कहुवन, "नोकरिए अइसन बा ए पान. हम का करीं? हमरा कवनो सवख थोरहीँ बा कि तहरा से अलगा रहि के रात काटी." बीरा के बोली मोटरका पी-पी में दबा गउवे. उ पनवा के छोड़ि देहुवन आ भाला उठावत गेट का ओरि दउरुवन.पनवा सन्न. ओकर गरमात खून धीरे-धीरे फेरू जामे लगुवे. मुँह से खाली अतने निकलुवे, "धिरिक जिनिगी बा हमार! संगे सुतलो-बईठल आ बोललो-बतियावल मोहाल हो गइल बा."


सेठ के रोबिआइल बोली सुनि के ज बीरा गेट खोलुवन त सेठ गड़िये में से दाँटि के पुछुवे, "घर में सोया था क्या रे? इतनी देर से हार्न दे रहे हैं और तुझे सुनाई नहीँ रहा है?" बीरा सकपका गउवन, फेरु सँभारि के कहुवन, "हुजूर जाड़ लागत रहल हा. कउड़ सुनगावे खातिर आगी लियावे चलि गइनी हाँ." "ऐसे ही गायब हो जायेगा तो दरबानी क्या करेगा? अच्छा सबेरे तुमसे पुछेंगे!" आ सेठ के गाड़ी हुर्र से आगा निकली गउवे. बीरा गेट बन करत खान सोचुवन, "अधम जिनिगी बा हमरो. छन भर हटि का गइनी, साला पहाड़ टूटि परल. अब सबेरे का जाने का होई?"


पनवा देरी होत देखि के बहराँ निकलि आइल रहुवे. सेठ के डपटल सुनि के ओकरा बूझत देर ना लगुवे कि सेठ काहें अतना नराज बा?ऊ धीरे-धीरे गेट का ओर बढ़ि गउवे, बीरा स्टूल पर बइठि के मूड़ी गोतले रहुवन. फिकिरे उनुकर माथा फाटत रहुवे. पनवा उनका कान्ही हाथ धरुवे त ऊ चिहा के ऊठि गउवन. पनवा धिरहीं से पूछुवे, "का ह हो? सेठ काहें गरमात रहलन हा?" बीरा चिहुँकि के ओकर मुँह ताके लगुवन. उनका कुछ ना सुझुवे कि त अतने कहुवन, "तूँ का चलि अइलू हा? जेवन होई तेवन आगहीं आई. अन्हेरिहे सोचि-सोचि के मुवला से का फायदा? तू जा! सूतऽ!" पनवा चुपचाप खड़ा रहे. बीरा फेरु स्टूल पर बइठि गउवन.


पनवा गोड़ का अगूँठा से माटी निखोरत पुछुवे,"तनी हमहूँ त जानि कि का भइल हा?"


"तोहरा ए पचरा में परला से का फायदा? आरे आगि लिआवे खातिर उहाँ से हटि गउवीं आ एने सेठवा आ गइल हा. ऊ बूझलस हा कि हम सूतल रहनी हां. बस गरमा गइल ह." बीरा चुपा गउवन.


पनवा उनका कपार पर हाथ फेरे लगुवे. सहानुबूति का स्पर्श से बीरा के ढाढस मिलुवे बाकिर ऊ पनवा के काँपत देखुवन त प्यार से झिरुकुवन, - "जा ना जाड़ लागी. ढेर फिकिर कइला के काम नइखे. अइसन गलती नइखीं कइले कि सेठ डामिल-फाँसी चढ़ा दीहें." पनवो तब्बो उहाँ से ना हटल, त बीरा उठि के ओके दहिना अंखवारी में भरले कोठरी का ऊर चल दिहलन..


सबेरे होखते सेठ का बइठका में बीरा के बोलाहट भइल. उहे पूछ ताछ, ऊहे जवाब. बाकि बीरा ए बेरा ना सकपकउवन. ऊ साफ साफ साँच कहि दिहुवन. सेठ पर ओह सफाई के कवनो असर ना भउवे. उ आपन दू टूक फैसला सुना दिहुववे. बीरा के ई उम्मेद ना रहुवे कि सेठ अतना कठोर होई. उ गिड़गिड़उवन बाकि सेठ टस से मस ना भउवे. "एक हप्ता के टाइम बा! तूँ जल्दी से जल्दी आपन बेवस्था क के ईहां से चल्ता बनऽ. तोहार हिसाब परसो मुनीब क दीही". ऊ भारी मन लेले अपना कोठारी का ओरी चल दिहुवन.


बीरा के अलम टूटल त सँघतिया कौलेसर किहां सरन लिहलन, फेरु जवन फिकिर कपारे चढ़ि के, भीतर का काँवर पिरीत के असमय झांवर क देले रहे ऊ मोका पावते अवरु चाँड़ हो गइल. सबेरे के निकलल डगडग मारल फिरसु बीरा. बाकिर नोकरी मिले त कवना सोर्स कवना विश्वास पर? बहुत कहला सुनला पर कौलेसर के मालिक साहब उनका के आपन दरबान बनावे पर राजी हो गइल. नोकरी पर जात खानी कौलेसर समझवलन, "सँघतिया, दुनिया देखावटी इमानदारी आ देखावती करतब खोजेले. एक जगो त भुगत चुकल बाड़ऽ, सोच समुझि के ेकान से रहिह." बीरा संघतिया के सीखि खूँटा गठिया लिहलन आ नवका सेठ के दरबार धइलन.


नवका सेठ बड़ा रंगीन तबियत वाला रहे. साहखरच आ फितरती. बड़े बड़े साहब सुबा ओकरा किहां जुटसु. अंगरेजी शराब के बोतल खुले आ किसिम किसिम के भोजन तइयार होखे. बीरा भड़कलन बाकि संघतिया के सीखि मन परि गइल. सेठ का सहर में कई गो माकन रहे. अदमियो जन के कमी ना रहे ओकरा. चाह के दू गो बगान ओकरा पस रहे आ चाह तइयार करे वाली फैक्ट्री. ओहि किहां बीरा काम करे लगलन.


सुरु-सुरु में सेठ के रंग-रोआब से बीरा भले कुछ भबतल होखसु, बाकि अब उनका एकर रपट परि गइल रहे. रोज खाइ-पी के संझिए खान अपना ड्यूटी पर हाजिर हो जासु. दिन का ड्यूटी पर दूसर दरबान रहे. बीरा के ड्यूटी सांझिए लागि जाव. ई बात दोसर रहे कि एइजा तनखाह अधिका मिले.


अपना चुस्ती आ फुर्ती से, बीरा के सेठ के विश्वासपात्र बने में देरी ना लागल. सेठ बाहर जाव त उनका उपर पूरा जिम्मेवारी डालि जाव.नतीजा ई भइल कि बीरा के कबो कबो दिनवो के मोका ना लागे कि कोठारी में जासु. कतने बेर ऊ आवे जाए वाला लोगन के मेहमाननवाजी आ सवाल के जवाब देत-देत अउँजा जासु. कबो-कबो उनके बख्शीश में पचीस पचास रुपयो भेंटा जाव. सेठ के दाई उनके पछिला-पछाड़ी बइठा के खिया पिया देस.


उनकर एह डयूटी से पनवा बहुत खुझे. अकेले ओकर मन ना लागे. बइठल-बइठल बीरा के बाट जोहल करे आ उनका बारे में सोचते सोचत ओकर मन रोवाइन हो जाव. परदेश में बीरा के छोड़ि के ओकर दूसर के रहे आपन? उदासी जब चँपलसि त ओकर रौनक उतरि गइल. नेह का संगे-संगे देंहि झँवाए लागल. उ बइठल बइठल सोचे..." हे गंगा माई! इ कइसन परिच्छा ले ताड़ू? गाँवे रहली त गांव-घर, कुल-परिवार आ समाज के भय से कुहुंकली आ जब एके लग्गे रहे के मोका आइल त बतियावहूं के मोका नइखे भेंटात."


एक दिन, दुपहरिया में, जब बीरा अपना कोठरी का आगा परल बेंच पर ओठँघल सूति गइल रहलन, कौलेसर आ गइलन. पनवा दुआरी पर बइठल का जाने कवना सोच में डूबल रहे. कौलेसर का खँखरला पर जब ओकर नजर उठल त जइसे आँखी में खुशी के फुलझड़ी छूटे लागल. हड़बड़ाइ के उठल आ कोठारी में से एगो स्टूल लिया के बहरा ध दिहलस. कौलेसर बीरा के झँझोरि के जगा चुकल रहलन. बीरा का बगल में बईठत कहलन, "गाँवे गइल रहनीं हाँ. पूरा आठ-दस दिन रहि के आवत बानी!"


- "बाबू जी ठीक-ठाक बाड़न नऽ!", कटोरी में मिसिरी आ लोटा के पानी स्टूल प धरत, पनवाँ अकुताइल पुछलस.


- "ठीके बाड़न, आरे एघरी तोहरा काका आ भतीजा लोग उनका के देखत-भालत बा. ऊहे लोग खेत-बधार से लेले गोरु-बछरु कुल्ही सँभरले बा."


- "जवन सँभरले बा लोग, तवन भगवाने जानत होइहें. कइसन बाड़न बाबू? ढेर दुबराइल बाड़न?" पनवाँ के गला भरि आइल.


- "कहत न बानी कि ठीक बाड़न". कौलेसर पनवाँ के ढारस देबे खातिर अपना बात पर पूरा जोर देत कहलन.


- "आ हमरा भइया-भउजी से भेंट ना भइल हा? ऊ लोग जानत बा कि हमनी का एइजा बानी जा." बीरा जइसे कूल्हि समाचार एक्के बेर जान लिहल चाहत रहलन.


- "ठीके-ठाक बा लोग, तहन लोग के गाँव छोड़ देला से नाराज आ दुखी बूझाइल लोग. तोहार भइया जरुरे कुछ परेशान लउकलन. तोहन लोग के खिस्सा सुनाइ के बतावे लगुवन कि केंतरे उनका दुआर पर कई दिन ले बलुआ के लोग उपदरो कइले रहे. ई त अच्छा रहे कि उनका तोहन लोग के पता-ठेकाना मालूम ना रहे, ना त जेंतरे ऊ बतावत रहुवन, चउधरी गाँव-जवार के लोगन का सँगे एइजा चलि आइल रहतन."


बीरा के मुँह लटकि गइल रहे. मूड़ी नीचे कइले फिकिर में डूबे उतराए लगलन.


- "पहिले पानी पी लेबे दऽ इहाँ के, त फेर जवन बुझाय पूछिहऽ.", पनवाँ बोलल.


कौलेसर जब पानी पी चुकलन त मूड़ी लटकवले बीरा के बल देत कहलन, "लोगन के त काम बा कहल-सुनल. तोहन लोगन के आपन रस्ता अपने तय करे के बा. हँ हम अपना बाबू जी के जरुर बतउवीं कि तोहन लोग एइजा बाड़ऽ जा आ ठीकठाक बाड़ऽ जा."


- "का? तब त जुलुमे बा!" बीरा के बेचैनी अउरी बढ़ि गइल.


- " अरे मरदे, आखिर कबले केहू ना जानी? कबले भगोड़ा बन के रहबऽ एक न एक दिनत सब जनबे करी! आ हमार बाबू जी बहुत धीर गम्हीर आ समझदार आदमी हउवन. उनके असलियत के मरम खूब नीक से बूझाला!"


- "जनला का बाद हमहन का बारे में कुछ कहतो रहुवन?" पनवाँ निखोरत पुछलस.


- "हँ, इहे कि तोहन लोग कवनो पाप नइखऽ जा कइले. एक दोसरा के चाहल आ निबाहल कवनो पाप ना हऽ. अगर पनवाँ के बाबूजी दुनियाँ के परवाह ना क के तोहन लोग के बियाहे क देले रहतन त ई नौबते काहें आइत? तोहनो लोग के भलाई भइल रहित आ ऊहो आज ठीक ठाक रहितन. इनकर काका आ पितिआउत भाई लोग के जरुर घाटा होइत."


- "अब त फायदा होत बा नऽ! हवेखते बा लोग. पहिलहूँ ऊ लोग इहे चाहत रहे कि कइसे हमार बिदाई होखे आ कइसे बाबू का खेत पर ओह लोगन के कब्जा होखे." पनवाँ अपना मन के उदबेग खोलि दिहलस.


- "अउर सब घर पलिवार मजे में बा लोग नऽ?", बीरा पुछलन.


- "हँ भाई सभे मजे में बा. हमार पूरा घर-पलिवार तोहन लोग का सँगे बा. साँच के आँच का? बाबू कहत रहुवन कि धीरे धीरे सबका एक दिन तोहन लोग के कबूलहीं के पड़ी."


कई महीना से गांव-घर से उखड़ल, लांछित-अपमानित पनवाँ का हिरदया के कुछ शांति मिलल. परदेस में अकेल रहत रहत उदासी ओढ़े-बिछावे के लकम धरा गइल रहे. अपना अँगना-दुआर आ सिवान में चहकत-उड़त रहे वाली चिरई इहाँ पिजड़ा का भीतर छटपटाइ के रहि जाव. अइसन ना रहे कि ओके गाँव घर के इयाद ना आवे, बाकि इयाद आइये के का होइत?


कौलेसर घंटा भर रहलन. बहुत बतकही भइल. बहुत बादर छँटलन स. जात जात ऊ बीरा से कहलन, "गाँव मे लवटे आ रहे खातिर अपना के कूल्हि बिरोध, अपमान, तिरसकार, आ लड़ाई खातिर तइयार करे के परी. तोहके आजु से ई गँठियाइ लेबे के चाहीं." बीरा के उनका एह उछाह भरल सीख से बहुत अलम, बहुत बल भेंटाइल.


सूरुज के ललाई धीरे-धीरे बदरन का धमाचौकड़ी में ओरात रहे. साँझ के धुंध धीरे धीरे जमीन पर उतरे शुरु क देले रहे. बीरा आपन खाकी कोट पहिन चुकल रहलन. पनवा चउकी पर थरिया धरत बोलल, "आराम से कुछ खा-पी के तब जइतऽ! दिन पर दिन शहरी बाबू भइल जात बाड़ऽ!" बीरा हँसि दिहलन, "भूखि रही तब न केहू खाई! पता ना एइजा हमरा के का हो गइल बा?"


"दूध-दही कुछऊ रहित त खाइल होइत. खाली रोटी आ आलू के तरकारी खात खात मन अँउजाइ गइल बा. एइजा गाँव लेखा लेहना पताई आ फरुहा कुदार त करे के नइखे. आदमी जब जाँगर चलावेला त भुखियो चाँप के लागेले." मुंह में हाली हाली कवर डालत बीरा सफाई दिहलन.


पनवा समझत रहे. असल बात त इ रहे कि सँझिये इनकर ड्यूटि चालू हो जाले. गेट पर ना रहसु आ कवनो बात हो जाव त नोकरियो जाई. तनी बेरा गिरा के इतमीनान से खइतन त एक दू रोटी बेसी खइतन, दूध दही कहाँ से आवे? दिन के ड्यूटी देबे वाला दरवान सँझही, माली का संगे संगे भागि जाला. जात जात बोलत जाई, "तनी देखिहऽ बीरा... हमरा बजारे जाए के बा." फुकवना इ कबो ना सोचे कि बीरो के पलिवार बा, इनहूँ के बजार हाट जाए के परेला. इनकर बजार त दुपहरिये में होला. अतना दिन में कब्बो जो इनका संगे बजार घूमे के मोका मिलल होखे. पनवा उनकर हाली हाली कवर उठावत देखत रहे आ मने मन खीझत रहे.


थरिया टारत बीरा उठि गइलन. अँचइ के लवटलन त गमछी से ताबरतोर मुँह हाथ पोंछलन आ कोना में खड़ा कइल भाला उठा के बहरिया गइलन.


अन्हार होते बीरा अपना ड्यूटी पर चउकस हो जासु. कारन कि ओबेरा ओह भारी हाता वाला मकान में खाली सेठ के लइकी मीनू आ बुढ़िया दाई रहसु. कबो कबो मीनुओ साँझि खा निकल जासु. गेट का बाँया अलंगे दिनरात परल रहे वाला काठ के कुरुसी उनका खातिर हाजिर रहे. बइठल बइठल उनका गाँव जवार के पुरान पुरान बात मन परे आ ऊ ओहिजा के खेयाल में हेराइ जासु.



रात के नौ साढ़े नौ बजल होई. बीरा अपना कुरुसी प बइठल बइठल झपकत रहलन.बहरा कार के हारन सुनाइल. "....." बुझला सेठ आ गइलन." बीरा सावधान, उठि के खड़ा हो गइलन. हारन के आवाज फेरु सुनाइल, बीरा उठिके गेट खोल दिहलन. गेट के पल्ला खोलत खोलत हारन दू बेर अउरी बाजल. "हुँह, तनिके में अगुता जाला लोग, मशीन थोरे हऽ, जे बटन दबावऽ आ चालू हो जाई..." भुनभुनात ऊ दुनो पल्ला खोलि दिहलन. चमचमात सफेद कार थोरिकी देर खातिर रुकल, "बीरा! गेट बन क के जल्दी आवऽ! ड्राइवर मूड़ी निकाल के बोललस. सेठजी के लइकी मीनू कार में पछिला सीट पर ओठंघल रहली.


कार जब सेठ का बरन्डा का आगा पोरच में जाके रुकल त पाछा हड़बड़ाइल धवरत, बीरा पहुँचि चुकल रहलन. मन में किसिम किसिम के सोच विचार चलत रहे. कहीं इनकर तबियत खराब ना हो गइल? बीरा जइसे कवनो निष्कर्ष पर पहुँचल चहलन. तले ड्राइवर उतरि के पछिला गेट खोललस, "मेम साहिब, उतरीं".


सेठ के लइकी डगमगात बहरा निकलली. राम राम, कइसन डरेस पहिनले रहली. देंहि पर ओढ़नी ले ना. दू डेग धरते ऊ लड़खड़ाइ के आपन बाँह हावा में एने ओने नचावे लगली, जइसे उड़त होखसु. गोड़ थरथरात रहे, बुझाव जइसे अब गिरली, तब गिरली.


"सम्हार के मीनू जी." बीरा सचेत कइलन.


"आज क्लब में तनी ढेर ले लेली हा. तूँ इनके अब कइसहूँ इनका कमरा ले पहुँचावऽ! हम त घरे चलनी.... अइसहूँ आज ढेर देरी हो गइल बा!" अधेड़ ड्राइवर धिरहीं से बीरा का पाछा कान का जरी फुसफुसाइल.


"सम्हारी अपना के मीनू जी." बीरा लपकि के उनकर हाथ ध लिहलन, फेरु कुछ खेयाल आवते जल्दी से छोड़ि दिहलन.


"हम.. हिच्च.. ठीक बानी... तूँ रहे द! हमके अब केहू के जरुरत हुँह... नइखे!" ऊ आपन बांया हाथ उठवली आ बगल में खड़ा बीरा का कान्ह पर ध दिहली, जइसे गिरे के डरे सहारा लेत हखसु. बीरा सोचलन, "हे भगवान, ई इनका आज का हो गइल? केहू देखी त का सोची?" बरन्डा के सीढी चढ़त चढ़त ऊ बीर का कान्ही पर पूरा ओलरि गइली. डेराइल सहमल बीरा धीरे से कहलन, "...राउर तबियत ठीक नइखे, जाके चुपचाप आराम करीं."


"हिच्च... तूहूँ डेरात बाड़ नऽ! हूँ हम खा जाएब तोहके, न ऽ ऽ??" मुँ के बफहरा बीरा के जीउ गनगना दिहलस. ऊ भीतरे भीतर ऊभ चुभ होत रहलन.


"अइसन मत सोंची जी... रउवा त सबकर दुलारी..."


"चुप रहऽ! जेयादा मस्का ना... सब के सब धोखेबाज.... . " मीनू के गर्दन बीरा के कान्ह पर लुढ़क गइल, बीरा दहिना हाथ से उनका ओलरत देंहि के सँभरलन. लहरन का बीच डगमगात नाइ लेखा उनका देंहि के सम्हरले कइसहूं कइसहूँ भीतर का हाल में पहुँचलन तले दाई आ गइली.


"का भइल बबुनी के? तबियत ठीक बा नऽ?" ऊ अँचरा से हाली हाली हाथ पोंछलत धउरली.


"ले जा दादी इनके, इनकर हालत ठीक नइखे."


"सम्हारऽ तूँ!" बीरा किकुरी के आपन कान्ह पाथा खींचि लिहलन. ऊ हिचकोला खात नाइ लेखा डगमगइली आ बुढ़िया दाई का कान्हा पर ओलरि गइली.


"तूँ जा बबुआ. ई सब समय के फेर हऽ, ना त हमार फूल नियर बछिया हेंतरे ना नु बेदीन होइती." कवनो गहिर पीरा से कुंहरत दाई के मुँह से बोल फूटल.


बीरा चुपचाप चल दिहलन. हाल से बाहर निकलत खा ऊ एक हालि पाछा घूमि के देखलन, दाई उनके अपना अँकवारी में धइले, कोठरी में ले जात रहली. भगवानो के अजब लीला बा. अतना धन-दउलत, सुख-एश्वर्य भरल बा एह घर में तब्बो एह लोग का शांति नइखे, ना केहु का केहूसे हिरऊ लगाव बा. मीनू अइसन त ना लागेली.... फेर काहें, आपन ई हाल कइले बाड़ी... राम जानसु उनका भीतर के हाल...


बीरा गेट प खड़ा खड़ा जब सिहराइ गइलन त कुरुसी प बइठि गइलन. उनका दिमाग में सेठजी का बारे में किसिम-किसिम के बात आवत रहे. कुल पलिवार अछइत सेठ अपना लइकी मीनू का संगे अकेलहीं एइजा रहेलन. सेठानी अपना पतोहि का संगे कलकत्ता रहेली. लइका कहीं बिदेस में रहेला. साल में एक दू बेर आवेला. ड्राइवर रामरतन बतावेलन कि ऊ ओनिए कवनो रंगरेज लइकि से बियाह कइले बा. जब आवेला सेठ से रुपया खातिर कहासुनी करेला आ कुछ ना कुछ लेइये के जाला.


रामरतन सेठो के बारे में पता ना का-का कहेलन. कहेलन कि उनकर सेक्रेटरी उनका पर मोहिनी मंतर डलले बिया. बीरा के खूब नीक से मन परत बा. ऊ कइ बेर एइजा सेठ जी के संगे आइल बिया. कबो-कबो इहाँ रात खा रुकियो जाले. सबका संगे खाले-पियेले आ घर का इंतजाम का बारे में बतियावेले. बीरा के त ओकरा में कवनो अइसन बात ना लउके. हँ तनी ज्यादा बनल-सँवरल रहेले. कबो सलवार सूट त कबो सिलिक के साड़ी. सेठ के लइकी मीनू से कुच्छे बरिस बड़ लागेले. सेठ जी का संगे अइला-गइला आ घूमला के मतलब इ थोरे भइल कि .... राम राम, लोगो कइसन-कइसन बात कढ़ाइ देला. बीरा मूड़ी झटकि के खड़ा हो गइलन आ गेट का एहर-ओहर टहले लगलन. बाकि मन के का कहल जाव? ऊ घूम फिर के ओही जा जात रहे. मीनू निसा में जवन कुछ बरबरात रहली हा ओकर का अरथ हो सकेला? बी॰ए॰ पास पढ़ल लिखल समझदार लइकी आ अतना रात खा पता ना कहाँ से आवेले आ दारू पी के .. छिः छिः.. इहो एक तरे से मति के फेरे न कहाई. शहरी लोगन के बाते निराली आ उटपटांग बा. बाप के चिन्ते नइखे, बेटी बेटा के परवाहे नइखे आ मतारी से कवनो छुवे छूत नइखे.


भगवान के अजब लीला. कहीं सब कुछ बा त चएने-सुख गायब. कहीं सब कुछ खातिर परेसानी बा तब्बो लोग साफ सोझ आ निफिक्किर रहि लेता. गाँव में त साफ सोझ साफ हिसाब बा. प्रेम महब्बत होखे भा झगरा. अइसन नइखे कि उहाँ छल, फरेब, ऊँच, नीच नइखे होत, बाकि पलिवार आ समाज के खयाल क के, डेरा लुका के. एइजा शहर में त सब कुछ खुलम्मखुल्ला बा. गाँव घर आ समाजे से डेरा के न उनका पनवा का संगे भागे के परल. एइजा अइला पर बुझाता कि कतना दुर्दशा आ फजिहत बा. जिनिगी एकदम बान्हल-छानल. केहू का फुर्सते नइखे. ऊ त नोकरी करत बाड़न. नोकर माने नोकर. ओकर कइसन आजादी? ऊ हाड़ मांस के बनल. कुछ रुपया प बन्हाइल एगो गुलामे न बा. धिरिक जिनिगी बा ओकर! पलखत नइखे मिलत पनवां का लगे बइठे-बतियावे के. ई रात भर जागल आ दिन में सूतल ओह बेचारी के त हमरो ले बुरा हाल बा! ना दिन के फुर्सत ना रात के चैन. बोललो बतियावल मोहाल.


गाड़ी के हारन बाजल आ गेट पर गाड़ी के घरघराहट सुनाइल. बीरा गेट में बनावल मुक्की से झाँक के देखलन. सेठ के गाड़ी रहे. हारन फेरू बाजल. बीरा हाबुर ताबुर धवरि के फाटक के कुंडी हटवलन आ गेटि खोल दिहलन. गाड़ी धीरे धीरे सरसरात अंदर घुसि गइल. गेट बन क के जब बीरा पाछा तकलन त पोरच में रुकल गाड़ी से सेठ जी के उतरत देखलन. उनका पाछा ले एगो मेहरारूओ उतरल. सीढ़ी चढ़त खा बरन्डा का अँजोरा में ओह मेहरारु के पूरा पूरा देखलन त चीन्हत देरी ना लागल. एह बेरा ओकर फैसन देखे जोग रहे. हाथ में बैग आ एगो कागज के फाइल. चिरई लेखा फुदकत सेठ का पाछा पाछा ऊ अंदर चलि गइल. बीरा पाछा लागल जब बरन्डा का लगे चहुँपलन त सेठ जी के बोली सुनाइल, 'दाई, बाहर के दरवाजा बन्न क आवऽ! आज बड़ी देर हो गइल हा आफिस में. हमहन के खाना-ओना नइखे खाए के! ओहरे होटल में खाइ-पी लेले बानी. हमके अभी बहुत काम करे के बा. तूँ खाइ-पी के सुति रहऽ!'


दाई जब बरन्डा के जरत बलब बुतावे चलली त बीरा के खड़ा देखि के पूछ भइली, 'तूँ खइले-पियले बाड़ऽ न! आज त ना सेठे खइलन ना मीनूए खइली. खाना बेकारे हो जाई. बड़ा मन से खीर बनवले रहलीं आज मीनू बिटिया खातिर..., बाकि... खैर आवऽ तूँही कुछ खा लऽ! एहीजा रुकऽ हम ले आवऽ तानी.' दाई जइसे आइल रहली, वइसहीं लवटि गइली.


थोरिके देर देर में जब लवटली त उनका हाथ में एगो बड़ पलेट रहे. ओम्मे रोटि, तरकारी, चटनी, आ एगो कटोरी में खीर धइल रहे. 'ल, बचवा, तूँ त कम से कम खा लऽ! समुझब कि हमार बनावल सवारथ हो गइल!'


बीरा दाई के मुँह ताकत रहलन. ओह निर्मल ममता भरल चेहरा प उनका प्रेम के सिवाय कुछ ना लउकल.ममता के मन राखे खातिर कोना में धइल स्टूल खींचि के बइठि गइलन आ दाई का हाथ से पलेट लेके धीरे धीरे खाए लगलन. खाना खात खा उनकर नजर दाई के चेहरा प टँगाइल रहे. उनकर मीठ चितवन उनका के सनेहि के घीउ में सानि के कवर खियावत रहे.


- 'तूँ एइजा कइसे रुकल बाड़ू दाई? इहाँ त केहू का केहू से लगावे छुआव नइखे.'


- 'दस-बारह बरिस हो गइल ए बचवा. हमार सवाँग त आज से तेरह बरिस पहिले हमरा के छोड़ि के चल गइलन. मजबूर होके एइजा अइनी आ एही जा रहि गइनी.'


- 'तोहरा अपना घर में आउर के के बा?'


- 'खाली एगो लइकी रहे. आज से तीन बरिस पहिले ऊहो संग छोड़ दिहलस. ओकर शादी-बियाह आ नाती-पोता देखे के सुखो बुझला हमरा भाग में ना रहे... ', बूढ़ी के आँख ढबढबा गइल. ऊ भुइँया बइठि गइली.


- 'का भइल रहे ओकरा?', बीरा खीर के कटोरी मुँह से लगावत पुछलन.


- 'का जाने का भइल, अचके पेट में खूब दरद उठल. एगो दूगो उल्टी भइल आ आधी रात होत-होत चलि गइलि हमार धिया!', आँचर से आँख के टपकत लोर सुखावत दाई कहली.


- 'डकदर के ना देखवलू?'


- 'देखावे के मोके ना मिलल. राती के बारह बजे खुद सेठे ओकरा के गाड़ी में अस्पताल ले गइलन. हमहूँ ओकरा संगही रहनी, बाकि अस्पताल पहुँचला का पहिलहीं हमरा बछिया के आँखि मुना गइल.' , दाई सुसुके लगली.


बीरा के आँख छलछला आइल रहे, दाई के ढारस बन्हावत अतने कहलन, 'जाए द! भगवान के ईहे मंजूर रहे.'


- 'का बताई ए भईया? ऊ अतना सुघ्घर आ मयार रहे कि ..', दाई के आँखि फेरु ढबढबा आइल, 'लामी लामी केसि, आम के फाँकि अस बड़ी बड़ी आँखि. हँसे त गाल में गड़हा परि जाव. तितली अस घर भर उड़ल फिरे. खाना त अतना नीक बनावे कि लोग अँगुरी चाटत रहि जाव. सेठ जी के लइकी हर घरी ओकरे संगे लागल रहस. पढ़लो लिखल रहे बबुआ... ', दाई के आँखि छत पर जा के अटकि गइल. जइसे ऊ फेरु ओही समय में लवटि गइल होखसु आ उनकर लइकी उनका आंखि के सोझा ओइसहीं तितली अस उड़त होखे. उनका आपन सुध बुध ना रहे ओ घरी.


बीरा खाना खा चुकल रहलन. दाई के ओही हाल में छोड़ि, पलेट उठवलन आ नल पर धोवे आ पानी पीए बरंडा से नीचे उतरि गइलन. नल पोरच का आगा छरदेवारी का जरी, बाँया अलंगे रहे. सेठ के गाड़ी ओही जा धोआव. ओही अलंगे सेठ जी के कमरा के खिड़िकी खुलँ स. ओ बेरा उनका कमरा में जरत लाइट के अँजोर छन के बहरा ले आवत रहे. एसे उनका नल का ओरी जाए मे कवनो दिक्कत ना भइल.


पलेट खँगारत खा उनके कवनो मेहरारू के खनखनात हँसी सुनाइल. उनकर नजरि सेठ जी का खिड़िकी कावर घुमल आ जइसे उनका देंहि चीरले लोहू ना. एक दम हकबक रहि गइलन. सेठ जी सोफा पर ढहल रहलन आ सेकरेटरी उनका कोरा में बइठि के हँसत रहे, ओघरी ओकरा देंहि प बेलाउजो ना रहे. ओकर हाथ सेठ जी का गर्दन में लपटाइल रहे आ सेठ जी ओकरा उघार देंहि पर धीरे-धीरे आपन हाथ घुमावत मुस्कियात रहलन. कुछ देर ले बीरा लकवा मरला अस खड़ा रहलन, फेरु होस अवते ऊ निहुरि के लुका गइलन. उनकर करेजा धुकधुकात रहे, जइसे कवनो चोरी पकड़ा गइल होखे. ऊ निहुरले निहुरल उहाँ से खसकि अइलन.


बुढ़िया दाई अभिन ले ओइसहीं बइठल रहली. उनकर नजर छत से उतरि के देवाल पर लगावल एगो बड़हन फरेम वाला फोटो पर गड़ल रहे. अइसन ना कि ऊ ओह फोटो के देखत रहली, ऊ त उनका नजरि के खाली अलम भर रहे, उनकर दिमाग त कहीं अउर रहे. कवनो दोसरा दुनियाँ में.


- 'जा तुहूँ अब सूतऽ दादी. ढेर रात हो गइल बा.', बीरा पलेट आ कटोरी उनका लगे धरत कहलन.


- 'हूँ... सहिये कहत बाड़ऽ. ढेर रात हो गइल बा. बाकि अब नीन कहाँ लागी?'


- 'अच्छा दादी, सेठ जी के लड़िका कहाँ रहेलन?', बीरा खड़े-खड़े बात के मोड़े के कोसिस कइलन.


- 'नाँव मति लऽ ओह मलेच्छ के. लड़िका हऽ कि दुश्मन हऽ. बहुत बाउर सोभाव के हउवे ऊ. एक बेर त पियला में हमरा लइकिए का संगे जोर जबरदस्ती करे लागल, ई कहऽ कि ओह दिन मीनू पहुँचि गइली. बहुत बोलली तब छोड़लस. सेठो जी सुनलन त बहुत डँटलन-फटकरलन. बाकिर ओकरा कवनो लाज हया होखे तब नऽ. हमार बछिया ओह दिन डरन हमरा लगे से कहीं हटली ना. ओकर बात पुछले बाड़ऽ ओकर रहन चाल देखि के सेठ जी ओकर बियाहो कइलन बाकि कुछ दिन का बाद ओकर फेरु उहे हाल. एने-ओने फालतू घूमल आ लड़कियन संगे छेड़खानी आ जोर‍-जबर्दस्ती. अब त कहीं कवनो रंगरेज मेहरारू राख लेले बा.'


- 'जाए द ए दादी! बुझा गइल कूल्हि .. जा अब तुहूँ सूतऽ!'


- 'अब का नीन परी हमरा? अब त रात भर पुरान-पुरान बात इयाद परी आ रात भर बेचैन करी! तूँ जा, तहरा नीन लागत होखे त घूमि फिरी आवऽ.'


- 'अच्छा दादी, सेठ जी के मेहरारु काहें ना रहसु एइजा?', बीरा अब दाई का बगल में भुइंया बइठि गइलन.


- 'पटबे ना करे ला एको दिन एह लोग में. ऊ अपना मन के आ ई अपना मन के. एगो लइकी मीनू बाड़ी. उनहूँ से ना पटे. अपने साज-सवख आ घुमला-फिरला में रहेली. कलकत्ता में बहुत बड़ मकान, गाड़ी कूल्हि बा.'


- 'अकेलहीं रहेली ?'


- 'ना पतोहियो रहेले. उहो नोकरानिए लेखा. कम पढ़ल लिखल आ सिधवा हियऽ. ऊ फारवड औरत ठहरली. खाली एने ओने घूमिहें आ हुकुम चलइहें. छोड़ऽ उनकर बात.. ', दाई के मूड 
एकदम खराब हो गइल.


बीरा सकपकाइल बात बदललन, 'तुहूँ दादी, सोझिया औरत, कहाँ फँसि गइलू एह शहरि लोगन का जंजाल में?'


- 'तुहूँ त फँसले बाड़ऽ! ई अधम पेट आ मजबूरी कूल्ही बरदास करावेला. ना त एह शहरी लोगन के बात मत पूछऽ. इहाँ सबे साढ़े बावने हाथ के बा. हमके खाली सेठ जी के लइकि के मोह बा, ना त हमहूं चलिए गइल रहितीं. बेचारी एह लोगन का दुखे ऊ अपना के बरबाद कर रहल बिया. बियाह शादी हो जाइत त छुट्टी होइत.' - दाई फेरु चुप हो गइली.


बीरा टुकुर टुकुर उनका चेहरा पर के चढ़ाव उतार आ दुख के लकीरन के पढ़त रहलन. मुँह से बकार ना निकलल.


- 'तहार मेहरारू बड़ी सुघ्घर बिया ए बाबू! गुनी, गिहिथिन, सील आ मरउवत वाली. अकेले डहुरत रहेले बेचारी एह पिंजड़ा में. ओकर उदास मुँह हमसे ना देखि जाला. एघरी ओकर गोड़ भारी बा. तनी ओकर खेयाल करऽ बचवा. तूँही न ओकर एगो आपन बाड़ऽ एइजा. आ साँच पूछऽ त एह हालत में ओके एइजा राखल ठीक नइखे.' दाई अपनाइत से बीरा के समझवली आ उठि के खड़ा हो गइली.


- 'जा अब, हमहूं बलब बुता के केंवाड़ी बन करीं, ना त सेठ जी कहीं जागि जइहें त एहू खातिर उल्टा सीधा बोलिहें.'


बीरा के जइसे केहू छिउँकी काटि देले होखे. सेठ के कमरा के हालि देखि के अजीब मन हो गइल रहे उनकर. चलत चलत दाई पनवा के बारे में जवन कहि दिहली कि उनका अउर हुड़ुक हो गइल. ऊ बहुत कुछ से अनजाने बाड़न. कतना गम्हीर बात कतना हलुकाहे कहि दिहली आजु दाई?


बीरा देवाल पर खड़ा कइल भाला उठवलन आ बेचैन मन लेले गेट कावर चल दिहलन. दाई बत्ती बुता के दरवाजा बन क दिहली. गेट का एहर ओहर चहलकदमी करत बीरा सेठ का आलीशान बँगला का ओर तकलन. पोरच के दहिना ओर सेठ का कमरा वाला खिरकी से अबहियों अँजोर छन के बहरा पसरत रहे. अँजोर देखते उनके सेठ का कोठरी क कूल्ही हलचल फेरु से उनका आँखी का सोझा आ गइल.... ' गजब बेसरम औरत बिया ई सेक्रेटरी! आ सेठ जी कवन दूध के धोवल बाड़न.' ऊ बुदबुदइलन, लोग झूठे कानाफूसी थोड़े करेला. जवान बेटी के चिन्ता नइखे बेसरम के आ अपना भोग बिलास में मस्त बा. बीरा आपन मूरि झटकि के कुर्सी प बइठि गइलन.


आज सँझही से अइसन अइसन तमाशा होत बा कि बीरा अस देहाती गँवई आदिमियो के एह शहरी जीवन के असलियत बुझा गइल बा. ऊ सोचलन बूढ़िया दाई आज अतना सलतंत से उनका से बइठि के काहे बतियवली हा. का उनका सेठ जी का एह हरकत केपता नइखे? कूल्हि मालूम बा उनका... जान बूझ के अनजान बनल बाड़ी. एक बात उनका ना समझ में आइल. ऊ अपना बेटी का बारे में बतावत खा जेंतरे रुकि रुकि सोचेलागत रहुवी, ओसे लागत रहुवे जइसे कुछ चिपावत होखस. सेठजी का लड़िका के जिकिर आवते ऊ कतना उफन गउवी. आँखी में से नफरत आ क्रोध के जइसे चिनिगी छटकत रहुवे. बीरा अनाप सनाप सोचत सोचत उँघाए शुरु क देले रहलन.


रात के दू भा अढ़ाई होत होई. सड़क प आन्ही अस जात कवनो ट्रक के घरघराहट से हड़बड़ाइके बीरा के झपकि खुलल. ऊ चारो ओर देखत, हाता के कोना अपना कोठारी का ओर तकलन. बलब ओइजो जरत रहे. 'त का पनवाँ अभी जगले बिया!' ..... 'अकेले डहुरत रहेले बेचारी पिंजड़ा में.' बुढ़िया दाई के कहल बात उनका इयाद आइल आ ऊ हड़बड़इले उठि के अपना कोठारी का ओरि चल दिहलन.


पनवा चउकी पर बइठि के कवनो छोट कुरता सिए में लीन रहे. 'का हो अबहीं जगले बाड़ू?' खिरिकी पर से झाँकत बीरा पुछलन.


पनवा झट से कुरता हटाके एकोरा क दिहलस आ मुस्कियात बोलल, - 'ए बेरा भला, तोहके कइसे मन पर गइल हा हमार?'


- 'खोलऽ, बताईं!' बीरा घूमि के दुआरी पर जा के खड़ा हो गइलन.


दरवाजा खुलते बीरा फेरु पुछलन, 'का सियत पूरत रहलू हा हो?'


पनवाका उदास चेहरा पर थोरकी देर खातिर ललाई आइल, 'तूहूँ खूब बाड़ऽ... तहरा नइखे पता?' बीरा ओकरा के अपना अँकवारी में भरि लिहलन, 'पता त बटले बा, बाकि अब्बे से अतना तइयारी के का जरुरत? अपन सरीर के त कुछ खेयाल करे के चाहीं. अजुए से रात रात भर जगरम काहें?'


- 'बेईं, छोड़ऽ! बड़ा हमार खेयाल करत बाड़ऽ.' पनवा उनका कड़ेर बान्हन में बन्हाइल, कसमसाइल.


बीरा छोड़ दिहलन. फेरु मूड़ी नीचे कइले कहलन, 'साँचे कहत बाड़ू. हम तहरा संगे बड़ा अन्याय कइलीं. कबो तहरा भीतर के पीरा आ कसक के ना समझनीं.' बीरा चउकि पर चित्ते परि गइलन आ छत के घूइरे लगलन.


- 'छोड़ऽ ना... तूहूँ का ले के बइठि गइलऽ. थाकल बाड़ऽ तनी आराम क लऽ. उठऽ हम एपर बिछवना बिछा दीं. निखहरे सूतल ठीक नइखे.' बीरा ना उठलन. पनवा उनका लगे बइठि के उनकर कपार सुहुरावे लागल. बीरा के आँखि मुना गइल.


पनवा कुछ देर ले नीन में परल बीरा का चेहरा के एकटक देखत रहे, फेरु ओकरा सूखल ओठ से कुछ शब्द फूटल, 'हमरे पाछे तहार कइसन हाल हो गइल? ना दिन चैन ना रात. हाय रे बिधना, हमहन के कवना पाप के सजाय मिलऽता.' भारी मन लेले ऊ उठल, कवाँड़ी बन क के बलब बुतवलस आ बीरा का बगल में ओठँगि गइल.


ओह दिन पनवा तरकारी चीरत खान बीरा के बारे में सोचत रहे, तले माई इयाद परि गइल. बस, कई दिन के जमकल बटुराइल कूल्हि उदासी आँखी का रहता बान्ह तूरि के ढुरुके लागल. आ जब बान्ह टूटल त बेग कहाँ अड़ाव? आंसू का धार में कूल्हि मोह ममता बहे लागल. डकबकाइल आंखि का तालाब में बाबू, सखी‍ ‍सलेहर, टोला परोसा, घर दुआर कूल्हि उतिरा गइल. बीरा घरे पहुंचलन त पनवा के दसा देखि के झवान रहि गइलन. पनवा के आँखि से गंगा जमुना बहत देखि के उनुका बड़ा माया लागल. ऊ पूछलन, 'का भइल हा पान? काहे रोवतारू?'


बोली सुनि के जइसे पनवा के करेजा मुँहे चलि आइल. लोर भरल आँखि में, अबहिन ले गाँव उतराइल रहे. बीरा के मयार पुछार से,कुछ कहे का बदला, ऊ अउरी हुचुके लगली. बीरा कागज के बंडल खटिया पर धइलन आ पनवा के पजरां आ के बइठि गइलन. फेरु पीठि पर हाथ फेरत पुछलन, कुछ बतइबो त करबू कि खाली गंगे जमुना बहिहन? पनवा एक हालि आपन भींजल पलक ऊपर उठवलसि आ उनुका ओर असहाय नियर तकलस.


'का बताईं, कुछ बतावे लायक रहित तब न? ....', हिचकी पनवा के बात पूरा ना होखे दिहलस. आंस पोछि पोछि के पनवा तरकारी चीरे लागलि. बीरा झुँझलइलन, 'हम कुक्कुर ना नु हईं?' पनवा बीरा के खुनसाइल ना देखले रहे. झिझिकारते सनाका खा गइलि. फेरु एक तोर ओकरा आरु आइल आ हिचिकी बन्हा गइल. बीरा ओकरा ढुरुकत लोर से पसीज गइलन. उनकर मन पछताए लागल. पनवा के अँकवारी भरत ऊ दुलार से पूछलन, 'आखिर हम कइसे जानब कि ...'


'हँ हँ. अब तू कइसे जनबऽ. अब हमरा में रहिए का गइल जाने लायक?' पनवा बिच्चे में टोकलस. फेरु तनी रहि के आगा कहे शुरु कइलस, 'तहरा गांव क उ पहिल फगुवा मन परऽ ता? जवना में झूमत तूँ हमरा दुआरे आइल रहलऽ? अब ना मन परी तहरा! बाकिर हम ओही दिन से तहरा पर आपन कूल्हि सँउप दिहलीं. तूं धधा के अपनवलऽ बाकिर हमरा नेह के कदर ना कइलऽ.'


बीरा अवाक्. उनुका बुझाते ना रहे कि पनवा का चाह तिया? उ कुछ बोलसु तले पनवा आगा बोलल, 'उहे फगुवा फेरु आ गइल. बाकिर डेढ़ दू साल बाद. नया देस, नया फगुवा, हमहीं पुरान हो गइलीं. दुख एह के नइखे. अतने बा कि सनेहिया काहे झाँवर हो गइल?' बीरा जतने चुप करावस उ ओतने रोवे. बीरा के दिल पघिलल. उ सोचे लगलन.... ठीके त कह तिया पनवां. जेवने के संवारे खातिर घर, कुल, पलिवार, देस कूल्हि छूटल, नेह के उहे बिरवा झुराता. पुरान पिरीत फेरु जवान हो गइल. भावावेग में बूड़त उतरात उ पनवा के पीठि पर हाथ फिरा के आपन ग्लानि आ पछतावा भरल छोह जतावे लगलन. पनवा उनका छाती से अउरी चिपट गइल.


होस आइल त बीरा गम्हिराह होके पुछलन, 'एइजा तहार मन नइखे न लागत. हमरो मन उबियाइले रह ता. हम का करीं तुहीं बतावऽ? एमें हमार कवन दोस बा? सेठ के नराज क देइबि त दोसर कहां ठेकान मिली?' पनवा कुछ ना बोलल, उ सांच के परतक्षे देखत महसूसत रहे. बीरा आगा कहे शुरु कइलन, 'हम कालहुए सेठ क गोड़धरिया करब कि ...'


'ना!' पनवा उनका मुँहे गदोरी ध दिहलस. 'कहला के का जरुरत बा? हम इ ना कहब कि तुं हमरा पीछे आपन नोकरी छोड़ द, अइसन ना हो सके कि हमनी फेरु गांवे लवटि जाईं सन? ओही गंगा मइया का आंचर में.... ओही हरियर सिवान में? ओही अपना लोगन का बीच!' पनवा के बोली ओघरी कुइयां में से निकलत रहे. अइसन बुझात रहे कि ऊ कल्पना में गांवहीं पहुंच गइल होखे, 'अइसन ना हो सके कि तुं गांवे चलि के आपन गिरहत्ती सम्हारऽ? दुइए बिगहा बा त का? तूँ हर जोतिहऽ .... हम बिया गिराइबि. जेवन रुखा सूखा कमइबऽ, हमके ओही में संतोख होई!'


बीरा ओकरा दर्द से सनाइल बोल से घवाहिल चुप चाप सोचत रहलन. उनुका आँखि में अछरंग, अपमान आ समाज के उपहास घूरियावत रहे. पनवा उनकर मुंह निहरलस. बीरा के आंखि देवाल पर टँगाइल रहे. पनवा बोलल, 'हम बूझतानीं, तूं का सोच ताड़ऽ? इहो हो सकेला कि गांव थिरा गइल होखे. आ इहो हो सकेला कि हमनी का गांव में हेलते कुकुर लेखा लरकि परे, बाकि खाली उलुटे ना सोचे के चाहीं. कुकुर झौं झौं होइबे करी त का? गांव ना छुटी, माटी ना भुलाई!' बीरा के ओठ फरकल बाकि पनवा उनके कुछ कहे ना दिहलस, 'सुनऽ, भविष्य के हाल के जान ता? तूं इचको मत डेरा. बाबू कुछ ना करिहन. अब करहीं के का रहि गइल बा? हमरा भीतर नेह के बल बा. अगर हमार नेह सांच होई त कूल्हि आन्ही बतास, घाम सीति अपने बिला जाई.'


बीरा के भीतर आपन घर दुआर, सँघाति खेत बधार साकार हो गइल रहे. पनवा उनके दुसरे सपना देखा दिहलस. उ कहलन, 'हो काहे ना सके पान? हो त किछऊ सकेला. बाकिर कुल्हि सोच लिहऽ. ई ना, जे पछताए के परो. तहरे कहला पर हम देश छोड़लीं. ओह घरी तूंही बेचैन कइलू. हमरा त लकम बा. चोट सहत सहत हम आदी हो गइल बानी. इहे कहब कि ठीक से सोचि लऽ. ' बीरा घटेवाला अनहोनी के सोचत फेरु देवाल में आँखि गड़का दिहलन.


पनवा सोचे लागल. बीरा ठीके कहऽताड़न. फेरु ऊ मूड़ी झटकरलसि, 'जेवन होई तेवन देखल जाई. पहिलहीं से का सोचल? एकही बाति हम सोचऽतानी आ ओही पर अडिग बानी.' 'का? हमहूं त सुनीं!' बीरा टोकलन.


'इहे कि हमनी का दुनिया का फेरां ना परि के आपन काम करे के चाहीं. ओईजां नूनो रोटी मिली त सब्बुर बा. समाज दुरदुरोइबो करि त सहि लेबे के. बाकि एइजा अकेले गुरुमुसि के चुपचाप उसिनाइल, जनिगी अछईत बिना कवनो मतलब के धीरे धीरे ओराइल, ठीक नइखे. तुं त चलि जालऽ. तहरा चेत ना रहत होई. बाकिर हमरा दिल से पूछऽ? जहिया से दखिनहिया घूमलि बिया हम सुनुगि सुनुगि के रहि जा तानी. तहार झूमि झूमि के गावत आ खुशी का चमक से दमकत चेहरा मन पर जाला. हम बेआकुल होइ के ए अन्हार कोठरी में छपिटाए लागेनी. कहां चलि गइल तहार ऊ उछाह उमंग से भरल मन?' पनवा कुछ अइसन ढंग से आपन बिथा उगिल दिहलस कि ओसे निकले वाली आँच के दवँक बीरा के गतरे गतर समा गइल. नाभि से नेह के फुहार उठल आ रोआं रोआं में पूरि गइल. ऊ पनवा के बटोरत आंखि मुँद लिहलन. पनवो चुपचाप उनुका छाति में समा गइल. एगो नए संसार क रचना सुरु हो गइल. प्रेम समर्पण आ तेयाग के नेंईं पर नया विश्वास के घर बने लागल. घर का भित्तर आस्था के दिया बरत रहे. फूल पात का संगे कांटो कूसन के दिन बहुरल. पँखुरियन में खुशी के रेघारी खिंचाइल रहे त संगे संगे कँटवो मुसकियात रहलन स.


बीरा मने मन तै क लिहलन कि अब गांवे लवट चले के चाहीं. गाँवे जाए का पहिले ऊ अपना सेठ से आ कौलेसर से मिल के आपन निश्चय सुना दिहल चाहत रहलन. एही से दोसरा दिने बीरा कौलेसर से मिले गइलन आ अपना गाँव लौटे के निरनय उनके बतवलन. कौलेसर अपना बाबूजी का नांव से एगो चिट्ठी लिखि के दिहलन आ कहलन कि ओइजा कौनो परेशानी बुझाई त बाबू से कहिहऽ कि हमके तार दे दिहें. लवटि के बीरा अपना सेठो से भेंट कइलन. पहिले त ऊ तइयार ना भइल. बाकि पनवां के स्थिति के जानकारी भइला पर ऊहो बीरा के छुट्टी दे दिहलसि.


किरिन फूटते गाँव भर ई खबर पाट गइल जे पनवा लवटि के आ गइल. पीपर घोरवटत खा मेहरारू 'बासदेव बाबा के दोहाई' का मनइती स, बीरा आ पनवा के प्रेम पुरान बाँचे सुरू कर दिहली स. डोलची में डोलची ठेके, एँड़ी पर पंजा चढ़ि जाव.


- 'ए भउजी तूँ हूँ देखलू हा?'


- 'ना हो बछिया, ऊहे कहत रहले हा!'


- 'मोटाइल झोँटाइल बिया कि ओही तरे एकहरिये रहि गइलि?'


- 'देखतीं तब न! .. कहत रहले हा जे आवते रमेसर काका के घर में घुसि गइले हा स, आ कँवाड़ी बन हो गइल हा. राम रे राम! भला अइसन कबो सुनल गइल रहल हा ए बलुआ में?'


सभत्तर एक तार मनसायन लागत रहे. बुढ़वा लाठी ठेघत एह दुआर से ओह दुआर ले अइसे घूमँ स, जइसे धोकरी बन्हले सन्यासिन क झुण्ड माँगे निकलल होखे. जेने देखऽ तेने चार लोग जुमल जोरियाइल. गाइ दुहाइ गइल, बछरू चूँची काटऽता, सेकर फिकिर नइखे. नाद में सूखल भूसा परल बा, बैल नाद का ओर पोंछ कइले खम्हिया तिकवऽता, भूसी आ हँड़धोवन ले नइखे परत. भइँसि तुराइ के पराइलि... 'देखऽ देखऽ ससुरी के, एकरो जोम चढ़ल बा. रहु, रहु! तोरो मकनाइल छोड़ावत बानी!' बइठले बइठल केहू गुरनात बा.


झलफलाहे जवन कानाफूसी सुरू भइल रहे तवन दिन उजरइला पर मधुमाछी के भिनभिनाहट में बदल गइल.


- का बचवा, सचहूँ बिरवा आइल बा हो?... अब का करे आ गइल हा साला?... सज्जी गाँव के ईजत त धोइये दिहलस आ गन्हाउर लेले फेरु आ गइल निर्लज्ज! ...अतना दिन कहाँ रहल हा हो?


चउधरी सुनलें त मन आवक में ना आइल. अन्हुवाइल खटिया से उतरले आ बे पनहिये के ओसारा तक दउरत चल गइले. दुआर लाँघे का पहिले का जाने काहें मरूवाइल मन लेले पाछा लवटि अइले. अजब हाल रहे... जूता पेन्हसु त गोड़े बदला जाव. लागे जइसे आँखि, गोड़, आ मन तीनू जवाब दे गइल होखे. ... पनवा आ गइलि! हमार बचिया, तोरा जाते हम कइसन अनेरिया हो गइलीं रे? धोती कतना मइल हो गइल बिया! एक लोटा पानी खातिर घंटा भर चिचयाए के परेला तब भतीजापतोहि झनकत मुँह झलकावेले. का कहीं हो पान? हमार सुख चैन त ओही दिने छिना गइल जहिया तूँ गइलू. कुच्छे दिन पहिले गोबर काढ़त खा, बछिया गोड़ कचटि दिहलस, ... आजुवो टभकत बा. केकरा से कहीं जे तनी हरदी चूना गरमाके छापि दऽ! अब त जइसे मन खदकत बा तइसे गोड़!


सुरुज बित्ता भर उपर अइले आ चउधुर के मय हुलास आन्ही मारल झँगाठ फेड़ अस भहराइ के ढहि गइल. पनवा त लोकलाज छोड़ि के बिरवा का सँगे पराइ गइल. दुआरे गवनहरी बइठल रहलन स आ ऊ केंगुनी छरदेवालि टापि के अलोत हो गइल. केहू के कुछ सुनगुने ना लागल.


बाइस्कोप के रील लेखा उनका आँखि के सोझा सबकुछ फेरु घूम गइल. जइसे अन्हरिया में भक् दे आग लाग गइल होखे, एक एक सबद उघार हो गइल... बरतिहन का सँगे सँगे उनकर भतीजो उनके लाँगट-उघार करे में तनिको उजूर ना कइले सन... 'सब इनके करतूत ह, जवान चरवाह घर में रखला के का काम रहे, जब जानत रहले कि लइकि अतना कुपातर बिया! बेटा बना के पोसले रहले जइसे हमनी का इनकर हड़पि लेब सन!'


हवा का हर झोंका हर सुरसुराहट में ऊ बीखि अजुओ घोराइल बा. ऊहे बीखि पीयत आ झँउसत डेढ़ बरिस बीति गइल. पनवा के काल्पनिक मोंहखरि जस जस साफ होखे के कोसिस करत बिया, हिया करकराये लागऽता. ओके त ऊ जानो ले बेसी मानत रहले. फेर काहें ऊ अइसन कइलस. साइत उनहीं का समुझ के फेर रहे. समय के ऊहे ना चीन्हि पवलन.


गुटुरगूँ....गुटुरगूँ....गुटुर. खपड़ा पर कबूतर बोले लगलन स. कई गो घरन से धुआँ उठल आ ऊपर जाके एके में मिलि गइल. उत्तर से दक्खिन ले एगो लमहर पट्टी बनि गइल. जइसे धरती के दुख हलुक करे खातिर अकास अपना दुआरे दरी बिछावत होखे.


- 'आ ऊहो आइल बिया? चउधुर के लइकियो? चउधुर के कटाइल नाक जोड़ात ना रहल हा, सेहि के जोरे आइलि बिया मलेच्छिन!' बगल वाला घर का दलान में बइठल चउधरान कवनो मेहरारू से कहली.


आसाम से रेल क थकइनी आ ऊपर से बस कि हिचिकी खात, बकसा आ मोटरी लेले, असरा के तार-तार जोरत पनवाँ बीरा का सँगे गाँव से कोस भर पहिले बस स्टाप प उतरल. देस का भूइँ गोड़ धरते ओकरा रोवाई फूटि गइल. घर-दुआर, खेत-बधार, गोरु, बाबू के नेह आ सखियन के अपनाव लागे जे करेजा फोरि के बहरी निकलि जाई. बेरा नवत रहे. बीरा पनवा के चुप करावत कहले, 'अब त आये गइलीं जा. सभ से भेंट मुलाकात होई. रोइबू त बेमार परि जइबू!'


पनवा के मुँह त बन हो गइल बाकिर आँखि के बान्ह सरवते रहले सन. ऊ थाकल थाकल कहलसि, 'का जाने काहें दो मन घबड़ा रहल बा. तनी सुस्ता लिहीं जा!'


बीरा एगो दोकान से पाव भर मिठाई आ एक लोटा पानी ले अइलन. 'एके साथ सभकर कटाह बोली के जवाब दिहल मोस्किल बा. का जाने गाँव का सलूक करी? चउधुर के तीन-तीन गो पट्ठा भतीजा बाड़ें स, देखते अहिरावन बनि जइहें स. गांव के लंठ लबार अउरी तरनाइ के अइंठिहे सन.' बीरा फिकिर करत बोललन.


- अब चले के नू? पनवा बोललि.


- चले के? बीरा के उलटे सवाल.


- त का एइजे डेरा डाले के?


- 'तहार ई हालत देखि के पुछलीं हा.' बीरा पनवा के कुम्हिलाइल काया का ओर इसारा कइलन.


- का?


- कुच्छु ना, चलऽ!


- ना, ना कहऽ. देखऽ... साफ साफ कहि देत बानी. एह कदराई से काम ना चली. अइसे पाहि ना लागी. लोग हमहन के पान का बीड़ा अस चबा जाई. प्रेम कइले बाड़ऽ त डेरालऽ काहें खातिर?


बीरा चुप्प.


एने दिन छिपल, ओने दूनो परानी हाथ में हाथ गँसियवले महुआबारी पार कइल. बारी में एकाध गो लम्मा-नियरा आम के फेंड़. बसन्त चुल्ली लड़िका अस एह फेंड़ से ओह फेंड़ कूदत रहे. कबो मोजरि में मुँह मारे कबो पतइन में लुकाव. बयार कबो ठनके, कबो गुदुरावे, कबो बीचे से हुमाच बान्हि के निकल जाव. बीरा अचके पनवा के सटा लिहले - 'पान!'


'निश्चिन्त रहऽ! तूँ त मरद हउव! अइसे अब्बर जिन बनऽ!' पनवा के उछाह भरल मुस्कान जइसे बहुत कुछ कहि दिहलस... 'तिरिया जनम अकारथ ना जाई. समय अइला पर देखिहऽ. कइसे लुत्ती से अहरा बनि जाले!' ओकर बड़ी बड़ी आँख अपना मौन भाखा में बीरा के संबल बनल... 'हम धरती हईं. हमरा गरभ में ना रूके वाली मीठ धार बहेले. तोहरा पर जर ढरले बानी, तोहरे पर जिनिगी ढरी! गाँव-घर, सखी-सलेहरि, टोला-परोसा सब तूँही बाड़ऽ. तहरे के पाइ के हमार संसार बा! काहें कुम्हिला तारऽ? आपन बल बिटोरऽ हमार परान!'


सगरी गाँव एकवटि जाई. हमनी अस अभाग वालन के का चली बसाई?


'कहि देतानी अब चुप रहऽ!' पनवा के मुँहे आगि लहकि के पटा गइल. ऊ खीसि से काँपत कहलस, 'अभागत हमनी के ना, गाँव के देखजरुआ बाड़न स. के एकवटी हो? केकरा मुँह बा? सभ अपने घर के गड़हा ना देखो, जेमे कुकुर पेसाब क जालन स आ आँखि मुनले ओही में बरतन धोवत रहेला लोग! हमनी के कवनो अपराध नइखीं कइले जा.'


बाकिर...


का बाकिर?


बाकिर चले के कहाँ? तोहरा घरे कि हमरा घरे?


'अबहीं त कौलेसरे भइया का घरे चलल ठीक होई. दुख बीपत में ऊहे न कामे अइले.' पनवा आपन राय दिहलस.


'हँ, रमेसरो काका दुआरे पर होइहें. अब उनका अलावा हमार छतरछाँह के बा? लड़िकाई से बापे नियर जनले मनले. कौलेसरो एगो चिट्ठी उनका के देले बाड़न उनसे राय बात क के इहवाँ रहे के हिसाब बइठावे के होई.' बीरा अभी बात खतमो ना कइले रहलन कि पनवाँ कहरत बोलल, 'हमार हालत ठीक नइखे. बहुत दरद बा!'


ठीके बा, धीरेधीरे चलऽ...


जइसे पानी खाला में अपना आपे डुगरल चलि आवेला, जइसे कमजोर का कपारे मय अछरंग अपना आपे लागि जाला, ओही तरे रमेसर राउत का दुआरे गाँव के अंडे-बच्चे क झमेल लागि गइल. नवछेटिहा छरकि-छरकि कूदँ स, कँवाड़ी अबहिन ले बन्ने रहे रमेसर के.


टोला के लइकी, मेहरारु कबो जंगला से, कबो इनार का बेदी से, आ कबो घूर प खाड़ होइ होइ एनिये तिकवँ स. सबकर आँखि-कान एनिये लागल रहे.


फजीरे के सुनुगल घाम गँवे गँवे तिक्खर हो चलल रहे. आदमी जब बोलेला त प्रकृति कान रोपेले, बाकिर प्रकृति के बोली आदमी सुनल ना चाहे. सुनियो लेला त महँटियाइ जाला भा अनमनाहे अइसे चलि देला जइसे कुछ सुनलहीं ना होखे.


रमेसर पगरी बन्हले, दुआरी प धइल चउकी पर ओही तरे बइठल रहले. लोग आवे, एक बार घुइरे, फेरु बन कँवाड़ी का ओरि ताकि के पहिले से जुमल भीड़ में सामिल हो जाव. सबकर बात सुनत रहले ऊ. सबकर बाति उनहीं पर होत रहे. गाँव भर का मुँहे सूरन लागल रहे बाकिर ऊ ना दोचित रहलन ना त परेसान!


जब सब जानिये गइल त जवन होई तवन देखल जाई. अइसहूँ जाने के त सभके रहबे कइल हा. आजु ना त काल्हु. जब अतना दिन कौलेसर इनहन के आसाम में सरन दिहलन हम त उनकर बाप हईं. अब का जानत रहुवीँ कि आवते ओकरा पेटे दरद उठि जाई आ किरपवा बो चमाइन के चिचियाए में बात एतरे खोलि से छटकल रेंड़ी अस घरे घरे डगरे लागि? अतना जल्दी बात फइलि जाई एकर कयासे ना रहल हा हमरा! खैर अब त ऊहे होई जवन होखे वाला होई!


बचना से उनकर चुप्पी अखरि गइल. ओठ के खइनी अँगुरी से निकाल के भूँईंयाँ पटकलस, अँगुरी गमछी में पोंछलस फेरु गमछी अँगुरी में लपेट के दू बेर मुँह का भीतर घुमवलस आ माहुर मुँह कइले उनका लग्गे आ गइल. धार के मइला अस बटुराइल लोग ओकरा पाछा-पाछा निगिचा सरकि आइल.


- 'सुनलीं हा जे पनवा आइल बिया!' बचना अइँठ के बोलल.


रमेसर के आँखि सिकुरली स. ऊ नजर उठाइ के उमखल उखमँजल भीड़ का ओरि एक बेर तकलन आ कुछ ना बोललन. चउधरी के छोटका भतीजा ढेमन, जेकर अबहीं बियाह ना भइल रहे, खीसिम पागल रहे. रमेसर के चुप्पी अब ओकरा बरदास से बाहर हो गइल. बचना के धसोरत ऊ रमेसर पर चढ़ि आइल, 'बहुत भइल! बड़ बूढ़ गुने सभ तोहके नइखे बोलत त एकर माने ई ना भइल कि तूँ जवन चहबऽ ऊहे होई! तोहरा जगह पर आजु दोसर केहू रहित त टँगरी चीरि देले रहितीं!'


रमेसर के खून खउलि गइल. बचना फेरू टोकलस, 'गाँव से रार बेसाहि के तूँ नीक नइखऽ करत काका!'


रमेसरो उबियाइल रहलन, उबाल के थिर करत कहलन, 'हम का करऽतानी ए बाचा? हम त अपना दुआरे चुपचाप बइठल बानी आ आपन धरम निबाहऽ तानी, बेकारे नू तोहन लोग अतना परेसान भइल बाड़ऽ जा.' जनाइल जइसे सउँसे उमिर के तेज उनका बोली में समाइल होखे, ऊ निडर होके कहलन.


गाँव के एकदम पुरुब अलँगे रमेसर के घर. खनहन पलिवार. दू गो पतोहि, एगो बेटी सुनैनी आ मलिकाइन. तीन बेटा, तीनू कमासुत! कौलेसर आसाम में, गोबर्द्धन कलकत्ता आ छोटका धरमनाथ पंजाब रहेला. चार पाँच बिगहा के खेतो बा. रहे बसे में लगाइत खाए-पहिने के कवनो कमी नइखे. सुनैनी के बियाह परुवे जेठ मे हो गइल. कूल्हि से सलतंत. लड़िका चार-पाँच महीना पर घरे आवल करेले स आ घर-दुआरि सहेजि-सिंगार के फेरु चलि जाले स. घर गिरस्थी से जवन समय बाँचेला रमेसर ओके रमायन बाँचे आ सतसंग में खरच करेले. सरजू मिसिर के सिवाला प रोज साँझि का बईठकी जमेले. कबो कभार भजन-गवनई हो जाला ना त आपन खेत आपन दुआर. ना हरहर ना पटपट. रमेसर कठिन से कठिन घरी में नइखन घबड़ाइल. बाकि आजु... ऊ आसमान का ओरि तकले, 'का बिधाता, इ कवन परिच्छा लेत बाड़ऽ?'


बचना एकदम निगिचा चढ़ि आइल, 'बिरवो आइल बा हो?'


'ऊ कहाँ जाई?' सवाल के जवाब सवाले में देत रमेसर खड़ा हो गइलन. लोग बवंडर अस उनके घोरियावे लागल. ऊ सभ के सुनावत कहलें, 'देखु भइया, जाके तुहूँ लोग आपन काम देखु. बेकारे नू मछरी बेंच कइले बाड़े. कहि त दिहनी, पनवा आइलि बिया. ओकर मरद बिरवो आइल बा. कौलेसर के सँगाति हऽ, हमरा घरे रुकल बा. राह बाट के थकइनी, अभी दिन उबरी त अपना आपे बहरी निकलिहें स. फेरु घरे दुआरे जइहें स. तब्बे भरि आँखि देखि लिहऽ जा. हो गइल न? अब जा लोग!'


एह निठोठ जवाब के केहू के आसा ना रहे. लागल जइसे उमखल भीड़ सुनुगत होखे इ कवनों झोंका में बरि जाये के तइयार होखे.


- 'जा लोग भइया, कहि दिहनी न, अब आपन काम धाम देखऽ जा!'


बहोरन तिवारी के जीभि ककुलात रहलि. मोका मिलते मोंछि पूरत बेंगुचि के बोलले, 'काम त आपन सभ देखते बा ए रमेसर, बाकी पानी जब नाकल से उपर चढ़ि जाला त आदमी गोड़ हाथ पटकबे करेला. अब हर ममिला में तहरे राज ना न चली? बहरियाव उनहन के, ना त कुछ ऊँच नीच हो जाई!'


- 'का कहलऽह हा हो?' साही के काँट अस रमेसर के रोआँ रोआँ तरना उठल, 'धावा मरबऽ जा का?'


- 'जरुरत परीत ऊहो होई! उन्हनी का मय रीति नीति आ आचार विचार के त नासिये दिहले बाड़न स. बहरा मुँह करिखी लगवले रहले हा स त दोसर बात रहे. अब गाँवो में ई सब केहू कइसे बरदास क ली? जें तू ढेर खरखाह बनबऽ त कहि दे तानी, फेरु हमरा दोस जिन दीहऽ!'


- 'सुनऽ सुनऽ ए बहोरन! तनी फेर से कहिहऽ त! हमार का क लेबऽ तूँ?'


- 'तोहके त हम दरि देइबि!'


सुनते भीड़ अमानि हो गइलि. रमेसर के धसोरि के लोग दुआरे ले पहुँचिगइल. कवाँड़ि ढकचे लागलि. ईंटा पत्थर चले लागल. अस झउँझार मचल जे रुखि पराइ के फेंड़ का सबसे ऊँच डेंहुगी पर चढ़ि गइली स. निचहूँ से देखला प उन्हनीं के पोंछि उठावल गिरावल लउकत रहे. अनुभवी रमेसरो के अक्किल हेराये लागल. भजन के झूठ आ फरेब के साँच, पहिला बेर उनका सोझा रहे. एक छिन खातिर उनकर दूनो आँखि मुना गइली स अब का होई रामजी! तुहईं इन्साफ करऽ!


चउधुर के कवनो छोट लइका भागल भागल बता आइल जे रमेसर बाबा का कपार फाटि गइल. केंवाड़ी पर ईंटा चलऽता . लोग ढकचावत बा बाकिर ऊ टूटत नइखे. लोग कहऽता जे बूढ़वा रतिए खां आन गाँव से दू-तीन गो नवहन के बोला लेले रहल हा. भितरी से खूब ढेलांउज करत बाड़े स. बच्चन भइया के घाव लागल बा. चचो घवाहिल बाड़न. अब पुलिस आइले बोलऽतिया.


चउधुर के परान मुँहे आ गइल. गोड़ के दरद गायब हो के आँखि के जोति बन गइल. झटका से सोंटा उठवले आ बछरु का पाछा खूँटा तूरा के भागल गाइ लेखा रँभात, गली में धवरि गइले – आ गइलीं रे पनवा ! अइलीं रमेसर, अइलीं ! घबड़इहऽ जिन, हम बानी तहरा ओर !


रमेसर राउत के दुआरे चहुँपल चउधुरी उहाँ के नजारा देखि के संठ हो गइले. बहरी से जतना ढेला भीतर फेंकात रहे, भितरी से ओतने बहरी फेंकात रहे. बुझाव जे बलुआ का भीतर एगो अउरी बलुआ बा जवन अँगनई से रक्षात्मक लड़ाई लड़ि रहल बा.


ढेलाबाजी के बीचे से देंहि बचावत ऊ सनाक से दुआरी ले चहुँपि गइले आ जा के दरवाजा छोपि लिहले.


बन्न करऽ लोग. हम कहऽतानी, बन करऽ जा ई तमासा. ऊ पूरा जोर लगा के चिचिअइले.

सगरे एगो तितिछाह चुप्पी पसरि गइल. हवा में उठल हाथ हवे में रुकि गइल. चउधरी के बुझाइल जे ई चुप्पी अन्दर के संबेदनहीनता आ क्षुदुरपन के नकली आवरन ह. जिनिगी का सहज सोझ डहर में काँट-कूट ईहे बोवेले.


हम कहऽतानी जे पनवा हमार लइकी हऽ. अछरंग लागल ओकरा माथे, बदनाम भइनी हम. हितई छूटल हमार, दोसरा के का मतलब ? हम ओके मारबि, गरियाइब भा काटि के दरिआव में बीग देब, जवन मन में आई करबि, तोहल लोग के एसे का लेबे-देबे के बा ?


काहे नइखे लेबे के ? भीड़ के खुमारी चढ़त देखि के बहोरन घघोटले, एगो त गाँव के ईजति गइल दोसरे अइसन कुकरम पर पीठियो ठोकल जाव का ? बाह रे चउधरी ! गाँव से बहरी रहेलऽ का ?


ढेरि चटक मति बनऽ ए बाबाजी ! तोहरे जइसन मनस्पापी सगरे बभनईया के गारी सुनवावता. अपने ना देखऽ …. मुँह जनि खोलवावऽ. जे प्रीति करे से मरद आ जे चित्त देइ से मेहरारु ! कूल्हि से बड़ निबाहल ह. आ एमे कुकरम कइसन हो ? का ऊ कुकुर सियार हउवन स ?


बहोरन तिवारी के मुँह लटकि गइल. सभ जानऽता जे ऊ मुसमात भवहि अँवसले बाड़े. पंचमुखी रुद्राक्ष के गुरिया आ चंदनी सुगंध से दबाइल उनुका कोन्हियाइल बास से तुलसी का पतई ले पियरा गइल.


एकर माने कि तूँहू पनवा के आ बिरवा के करतूत के जायज कहऽतारऽ ?
प्रेम नजायज कब कहाइल बा ? बरियारा के मुँह जवन कहे तवन कानून ह ?


बलेसर बहुत देरि से कुछ बोलल चाहत रहले बाकिर बहोरन तिवारी के हात देखि के पटा गइले. सोचले, कहीं हमरो से मत उघटापुरान करे लागो. जेठकी पतोहि के करतूत केहू से छिपल बा. मरद ओकर पगलेटे हऽ. लाला मस्टरवा के उनुका घरे आवाजाही केहू से छीपल बा. दसन बरीस हो गइल. पतोहियो मिलल त मुंहे करिखी पोते वाली. ओकरे पाछा हम कई बेर बेइज्जत भइलीं. बलेसर के मन अस खटाह भइल जे ऊ धीरे से भीड़ से बहरियाइ गइले.


भीड़ ओहि तरे खदकत रहे. कुछ देर बाद बचना बोलल, ठीके बा. चउधरे जब चाहत बाड़न त हमहन के का बइरकंठी झारे के बा?


बाकिर हमरा त झारहीं के ना, फटकहूं के बा. ढेमना गरई अस छटकल – सँभारस चउधुर आज से आपन भेभन. पेन्हावसु सिकड़ी पनवा के. आजु से दाना-पानी बन्न. की त बीरवे रही की त हम. नाहीं त सबुर क लेबे के कि हमहन के काका मरि गइले.

ठठाई के हँसलन चउधरी – अइसन ? चलु बाचा, इहे सही.


बुझाइल जे एक बेर फेरु भीड़ के उफान पटा गइल. बहोरन ढेमना के एक ओरि ले जा के का जानी का बतियावे लगले.


ठीक बा ए चउधर ! चलि जाइब जा ! बाकी अइसे ना, अब्बे पंचाइत बइठी आ अब्बे फैसला होई ! अइसन अनेति पचावल कठिन बा. जम के छुवला के ना, परिकले के डर ह. तुहऊँ नीक नइखऽ करत !


फेरु चउधुर बेफिकिर, मुस्कियाइ के रहि गइलन. भीड़ के मनसा से इ साफ पता चलत रहे कि ऊ दोबिधा में परि गइल बिया. ओके भेड़ि अइसन हाँकत बहोरन चिल्हिकले – चलीं सभे. पंचइते बइठे. रमेसरो ना बँचीहें. जौले घर जराइ के छार ना क दियाई तौले गँवइ कलंक ना मेटी.


चउधुर फेरु टँठाहे मुस्कियइले, हम तोहार पंचाइत मानी तब न ? तूँ हउवऽ के ? अपने पंचाइत ना फरियावऽ पहिले.


सरेहि में फुलाइल सरसो पर गदराइल मटर ओलरि गइल. कतहीं फेंड़ रा डेंहुगी पर एगो नया पल्लो आँखि खोललसि – लाल, लाल ! तले सरजू मिसिर का शिवाला पर शंख बाजल – पुप… पुप्…पुप्…पों ऽ ऽ ऽ.


एक-ब-एक रमेसर के केंवाड़ी खुललि… भड़ाक ! दूनों पट दू ओरि … आ जइसे सबका पंचाग्निहीम के धुआँ लागल होखे, सभ आँखि मिचमिचावत देखल. पहिले सुनैनी, ओकरा पाछा ओकर अलम लिहले पनवा, ओकरा पाछा मलिकाइन, फेरु कोरा में लरिका लिहले रमेसर के बड़की पतोहि, फेरु दीया लेले छोटकी ….. कूल्हि मेहरारु गोलाई में पनवा के तोपि लगहली सँ.


खुनियाइल रमेसर के जइसे जवानी लवटि आइल होखे, हरिना अस चउकड़ी भरत सुनैनी का लगे पहुँचि गइले. भीड़ के जइसे काठ मार दिहलस, सभे ई अद्भुत लीला देखि के भकुवा गइल.


का पंचाइत करबऽ ए बहोरन ? – रमेसर पतोहि का कोराँ से लुग्गा लपेटल लड़िका कोराँ में लात कहलन – पंचाइत त भगवाने क दिहलन. मेटऽ एकर रेखि, हूब बा तऽ ! पनवा अब महतारी हो गइल, सोहागिन महतारी. चउधरि अब नाना बनि गइलन.


पनवाँ के आँखि से गंगा-जमुनी फूटि परली. ऊ गोलाई से बहरियात रमेसर के गोड़ छू लिहलस. चउधुर धवरि के ओकरा लग्गे चहुँपि गइले. पनवा लट छितरवले, हहास बान्हत बढ़ल आ हुँकुँरत उनका कोरा में लुका गइल. आखिर चउधुर ओकर बापे ना, छोटे पर से महतारियो रहले. चउधुर के आँखि बढ़िया गइल. ऊ आनंद का आखिरी छोर प खड़ा काँपत कहले – धनि हो, धनि हो रमेसर ! तूं हमरा अस लुटाइल भिखारी के मालामाल कई दिहलऽ ! अब का नइखे हमरा ? बेटा, दमाद, नाती, परिवार ..?


भीड़ के थथमा लागि गइल रहे. लागे जइसे, कवनो मन्तर से ओकर मय हियाव बान्हि दीहल गइल होखे. बचना, बहोरन, चउधुर के भतीजा ढेमन आ सगरो फेतुरत पसारे वाला लोग फाटल आँखि से, देखत रहि गइल. सबकर मुँह बन्न. किरपा बो चमाइन गठरी लिहले बहरी निकलत रहे.



चउधुर ओके देखि के चिचियइले, ए किरिपा बो, तूँ आपन कूल्हि नेग जोरि के हमरा से ले जइहऽ.



अन्हेरिन के अनेति टूक टूक होइ के जेहर-तेहर छितिरा गइल. सुरुजदेव बीरा आ पनवाँ के सन्तान असीसे खातिर अउरी नीचे लरकि आइल रहले.


(पूरा हो गइल)




“आवऽ लवटि चलीं जा” लघु उपन्यास के पहिला हिस्सा १९७९ में भोजपुरी पत्रिका “पाती” में “सनेहिया भइल झाँवर” शीर्षक से छपल रहे आ एकर दुसरका हिस्सा “समकालीन भोजपुरी साहित्य” के जून १९९७ के कथा विशेषांक में ” पनवाँ आ गइल” शीर्षक से छपल. हालांकि ई देहात के बे पढ़ल-लिखल पनवाँ आ बीरा के प्रेमकथा ह, बाकिर एम्में गाँव से शहर के पलायन आ फेरु ओसे मोहभंग के साथे-साथ वापसी आ अन्तःसंघर्ष के चित्रण बा.


ई लघु उपन्यास बाद में अँजोरिया में धारावाहिक रुप से प्रकाशित भइल रहे. अब ओही उपन्यास के अँजोरिया के एह नयका संस्करण पर प्रकाशित कइल जात बा. कोशिश बा कि पुरनका संस्करण से सम्हारे जोत रचनन के एह खंड में ले आवल जाव जेहसे कि पाठकन के खोजे पढ़े में सुविधा होखे.


उपन्यासकार डा॰ अशोक द्विवेदी के नाम भोजपुरी साहित्य में जानल मानल आ मशहूर बा. अँजोरिया के सौभाग्य बा कि डा॰ द्विवेदी के रचना नियमित रूप से मिलत रहेला प्रकाशन खातिर आ हर बेर ओकरा के प्रकाशित कर के मन खुश होला. डा॰ अशोक द्विवेदी का बारे में भोजपुरी साहित्य के एगो पुरहर स्तंभ पाण्डेय कपिल के कहना बा कि, “गीत, गजल, नई कविता, निबंध, कहानी, लघुकथा, आलोचना आ संपादन का क्षेत्र में डा॰ अशोक द्विवेदी के जे अनमोल अवदान भोजपुरी के मिलत रहल बा ओकरा से भोजपुरी के ठोस आ वास्तविक समृद्धि सुलभ भइल बा…… उनुकर कहानी परम्परागत भोजपुरी कहानियन के इतिवृत, आदर्श आ औपचारिक विवरण से आमतौर पर मुक्त बा. यथार्थ जिनिगी के नीमन‍-बाउर अनुभवन से उपजल कहानी जहाँ एक ओर भाषा के संपूर्ण संस्कृति संस्कार से लैस बा, उहें एकनी में देश आ काल का मोताबिक उभरल चरित्र तीखा आ क्रिटिकल भइला का साथे बड़ा सहज ढंग से उभरल बाड़ें स.”


टैगोर नगर, सिविल लाइन्स बलिया – 277001
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