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रविवार, 29 दिसंबर 2024

लघुकथा संग्रह थाती से पाँच गो कहानी

लघुकथा संग्रह थाती से पाँच गो कहानी

- भगवती प्रसाद द्विवेदी


 

(1) त्रिशंकु

सबेरे जब पता चलल कि मुहल्ला के सुरक्षा बेवस्था खातिर एगो समिति के गठन कइल गइल हा, त हम अपना के रोकि ना पवली आ सचिव पद खातिर मनोनीत अपना मकान मालिक का लगे चहुँपली, 'सिन्हा जी सुने में आइल हा जे रउआँ सभे काल्ह सांझी खा मुहल्ला के लोगन के जान माल के हिफाजत खातिर एगो समिति के गठन कइनीं हां, बाकिर हमरा के रउआं सभ बोलइबो ना कइनी?'

'आरे भाई, रउआँ अस किराएदार लोगन के का ठेकाना!' सिन्हा जी हमरा के समुझावे का गरज से कहलन, 'आजु इहां बानीं. कालह मुहल्ला छोड़ि के दोसरा जगह चलि जाइब. एह मुहल्ला के स्थायी नागरिक रहितीं त एगो बात रहित!' हम भीतरे भीतर कटि के रहि गइलीं.

अबहीं बतकही चलते रहे, तलहीं गांव से पठावल आजी के मुअला के तार मिलल आ हम बोरिया बिस्तर बान्हि के गांवे रवाना हो गइलीं.

आजी के सराध के परोजन से छुटकारा पवला का बाद एक दिन परधान जी के चउतरा का ओरि टहरत गइलीं त देखलीं कि मंगल मिसिर के एह से कुजात छाँटल जात रहे काहे कि ऊ अपना जवान बेवा बेटी के फेरु से हाथ पियर करे जात रहलन.

'पंच लोग! रउआँ सभे ई अनेत काहें करे जा रहल बानीं?' अबहीं हम आगा बोलहीं के चाहत रहलीं कि परधान जी हमरा के डपटि के हमार बोलती बन क दिहलन, 'तूं कवन होखेलऽ एह ममिला में दखल देबे वाला? अपना शहर में ई शेखी बघरिहऽ! ई गांव के ममिला हऽ, बुझलऽ?'

रउएँ बताईं, हम अपना के गँवई सनुझी आ कि शहरी?

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(2) न्यूट्रान बम

मुखिया जी अपना दुआर पर हुक्का गुड़गुड़ावत अखबार बाँचत रहले. एक ब एक उन्हुकर निगाह एगो खबर पर जा के अँटकि गइल आ ऊ बगल में बईठल समहुत चउधररी के झकझोरलें, 'समहुत भाई, अब त ई बिदेसी वैज्ञानिकओ गजबे जुलुम करे जा रहल बाड़े स!'

'ऊ का मुखिया जी? कवनो खास खबर छपल बा का?'समहुत चउधरी मुँह बा के सवाल कइले

'हँ भाई! उहाँ के वैज्ञानिक लोग एगो बम बना रहल बा न्यूट्रान बम! ई बम जहवाँ गिरी उहवां के घर दुआर त सही सलामत बाँचि जइहें स, बाकिर जीयत परानी जरी सोरी साफ हो जइहें.' मुखियाजी असलियत बतवले.

'बाप रे, अइसन जादू!' समहुत चिहुँकले.

'हँ हो! बाकिर जब आदमिए ना रही त इ चीज बतुस आ घर दुआर रहिए के का करी!'मुखिया जी हुक्का एक ओरि ध दिहले.

'बाकिर मुखिया जी, ई त कवनो नयका बाति नइखे बुझात. अइसन बम त इहवाँ पहिलहीं से बनल शुरु हो गइल बा.' समहुत चउधरी कुछ सोचत कहले.

'का बकत बाड़ऽ समहुत भाई! न्यूट्रान बम आ अपना देस में?'मुखिया जी अचरज से पुछलन.

'ठीके कहत बानी मुखिया जी! चिहाईं मति! अपना देस में पढ़ाई के एगो अइसने न्यूट्रान बम छोड़ाइल बा. तबे नूँ जब आदमी पढ़ि लिखि जात बा, तब ऊ बहरी से ओइसे के ओइसहीं रहत बा, बाकिर ओकरा भीतरी के आदमीयत मरि जात बा. आ जब आदमीयते ना रही, त आदमी ससुरा रहिए के का करी!' मुखिया जी अबहुँओ समहुत का ओरि टुकुर टुकुर ताकत रहले.

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(3) अबला

बेरोजगार सुशील अँगना में बँसखट पर बइठि के 'रोजगार समाचार' में रोजगार ढूँढ़े में लवसान रहले. माई पलँगरी पर बईठि के 'पराती' के कवनो कड़ी मने-मन बुदबुदात रहली.

धनमनिया तवा पर रोटी सेंकति रहे. ओकर देहिओ गरम तवा लेखा जरति रहे. बाथा का मारे माथा फाटत रहे. ओकर मन रोवाइन-पराइन भइल रहे.

तलहीं नीके तरी खियाइल तवा पर रोटी सेंकत खा धनमनिया के हाथ जरि गइल. भरि तरहत्थी फोड़ा परि गइल. दरद का मारे तड़फड़ात एगो बेपाँख के चिरई-अस घवाहिल होके ऊ आँचर से लोरपोंछत बड़बड़ाए लागलि, 'हमार करमे फूटि गइल रहे. ... एह से नीमन रहित जे बाप-महतारी हमरा के कुईयाँ में भठा देले रहितन... हमरा के जहर-माहुर दे के....'

'ऊँह! ई नइखे सोचत जे तोरा अइसन चुरइल के अइसन भलामानुस घर कइसे मिलि गइल!' पलँगरी पर करवट बदलत सुशील के माई जवाब दिहली.

उन्हुकर बोली धनमनिया के जरला पर नून नियर लागल. ओकरा देहि के पोर-पोर परपरा उठल. ऊ मुँह बिजुका के चबोलि कइलस, 'काहे ना! हमार सुभागे नूं रहे जे अइसन कमासुत मरद, नोकर-चाकर...!'

सुशील तिलमिला के आँखि तरेरले. उन्हुकरा बुझाइल जइसे उन्हुकर खिल्ली उड़ावल जात होखे.

'बात गढ़े त खूब आवेला कुलच्छिनी के!' धनमनिया के सासु अब बिछौना पर से उठिके बइठि गइल रहली, ' सुशीलवे हिजड़ा अइसन बा जे तोरा-अस कुकुरिया के घर मे रानी बना के बइठवले बा. दीगर मरद त कबहिएँ कुईयाँ में भसा आइल रहित. ना रहित बाँस ना बाजित बाँसुरी!'

सुशीलो के ताव आ गइल. मरदानगी के चुनौती! ऊ 'रोजगार समाचार' के भुईयाँ बीगि के देहि झाड़त ठाढ़ हो गइले आ पत्नी के देहि पर लात-झापड़ आ मुक्का बरिसावे लगले, 'हरामजादी! तोर अतना मजाल! हमरा देवी-अस महतारी से लड़त बाड़े? हम तोर चमड़ी नोचि घालबि.'

धनमनिया एने चुपचाप रोवति-बिलखति रहे आ सुशील आपन मरदानगी देखावत ओकरा के अन्हाधुन्हि लतवसत रहले. थोरकी देरी का बाद, जब ऊ हफर-हफर हाँफत हारि-थाकि गइले त ओकरा के ढाहि के बहरी बरंडा में चलि गइले.

धनमनिया के अइसन लागल जइसे केहू ओकरा देहि में आगि लगा देले होखे आ ओकर सउँसे देहि धू-धू क के जरति होखे. ऊ कहँरत उठलि आ फेरु रसोई बनावे लागलि.

चूल्हा बुता के आँचर से आँखि पोंछत धनमनिया सुशील का लगे जा के ठाढ़ हो गइलि, 'अजी, सुनऽ तानीं? चलीं, खा लीं!'

'हम ना खाइब!' सुशील झबरहवा कुकुर-अस झपिलावे लगले, ' तें भागऽ तारे कि ना ईहाँ से?'

'चलीं ना, हमार किरिया...' धनमनिया सुशील के बाँहि ध के खींचे लागलि.

सुशील झटकरले,'हम ना खाइब... ना खाइब...ना खाइब!'

'हमरा से गलती हो गइल. माफ क दीं.' धनमनिया सुशील के गोड़ ध के माफी माँगे लागलि. बाकिर सुशील दाँत से ओठ काटि के एगो भरपूर लात ओकरा देहि पर जमा दिहले, 'हरामजादी! नखड़ा देखावत बाड़े? हमरा से बोलिहे मत!'

धनमनिया आह क के गिरलि, फेरु उठल आ घर में ढूकि गइलि. थोरकी देरी का बाद खिड़की राहता से ऊ बहरी निकलि गइल. बाकिर कबले ऊ अबला बनल रही? सवाल झनझनाए लागल आ ऊ सबक सिखावे खातिर कड़ेर हो के अततः वापिस लवटे लागलि.

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(4) धरम करम

भिनुसहरा होत पंडीजी जइसहीं कनखियवनीं कि भगत लोग ओकरा के अन्हाधुन्ह पीटल शुरु कऽ दिहल आ तब ले ओकर ठोकाई होते रहि गइल जब ले ऊ बेहोश ना हो गइल. भला होखे त काहें ना, भला चर्मकार होके मठिया में ढूके के गलती जे कइले रहे!

साँझी खा मठिया में भगत लोग के भीड़ देखते बनत रहे. पंडी जी पाठ शुरु कइनीं, - ' जात पाँत पूछे ना कोई, हरि के भजे से हरि के होई'...

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(5) महिमा

जब खटिया पर अलस्त होके परल बेमार मेहतारी के फाँका ओकरा से देखल ना गइल त ऊ सिंगार-पटार क के घर से बहरी निकले लागलि. माई कहँरत पूछलसि, ' अरे फुलमतिया,कहवाँ जा तारे?'

' बस अबहिएँ आवत बानी, माई! तनी बसमतिया सखी के घरे जात बानी.' ऊ कुलाँचत बहरी निकल गइलि.

फुलमतिया दुलुकिया चाल से चलत सेठ धनिक लाल के हवेली का ओरि बढ़े लागलि. ओहे दिने कइसे ऊ ओकरा के लालच देखावत रहलन! गिद्ध नियर उन्हुकर आँखि ओकरा देहि पर गड़ले रहि गइल रहे. चलऽ, सेठ के मन के भूख मिटवला का बदला में माई के पेट के भूख आ लमहर दिन से चलत आवत बेमारी त मेटी.

जब फुलमतिया माई के हाथ मे ढेर खानी नोट गिनि के थम्हवलसि त माई के अचरज के ठेकाना ना रहे, ' फुलमतिया, अतना रोपेया कहवाँ से चोरा के ले अइले हा रे?'

' माई, सड़क पर गिरलरहल हा. हम उठा लिहली हा.' फुलमतिया जान बुझि के झूठ बोललसि.

' भगवान! सचहूँ तूँ सरब सकतीमान हउवऽ! गरीब गुरबा के छप्पर फाड़ि के देलऽ तूँ. तहार महिमा अपरम्पार बा. हे दीनानाथ!' आ फुलमतिया के माई ढेर देरी ले नोट के छाती से लगा के भाव विभोर हो के ना जाने का का बुदबुदात रहि गइलि.

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(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई सब कहानी साल 2006 में अंजोर भइल रहल)

रविवार, 15 दिसंबर 2024

चिनगारी

लघुकथा

चिनगारी


- शिवपूजन लाल विद्यार्थी

हम आफिस के काम निबटा के पटना से  लवटत रहीं. ट्रेन में काफी देर रहे. करीब  तीन घंटा से प्लेट फारम प बइठल-बइठल बोर  होत रहीं. गाड़ियन के विलम्ब से चले के  सूचना सुनि-सुनि के भीतर-भीतर खीझ होत रहे  आ रेलवे प्रशासन पर पिनपिनाहट. समय  गुजारल बड़ा कठिन होत रहे. अगल-बगल में  कवनों जान-पहचान के अदिमीओ ना लउकत  रहे कि बोल-बतिया के समय काटल जाव.

बोरियत से जूझे खातिर आखिरकार बैग में  से एगो पुरान पत्रिका निकालि के उलटि पुलटि  करे लगलीं. बाकिर पत्रिका पढे में जी ना  रमत रहे. मन के बझावे खातिर झूठो-मूठो के  पन्ना उलटत रहीं.

तबे एगो युवती सामने आके खाड़ हो  गइल. हालांकि हमार नजर पत्रिका प गड़ल  रहे, मगर आहट से ओकर उपस्थिति के हमरा  आभास मिल गइल. अगर उ - ‘बाबू जी,  बच्चा बहुत भुखाइल बा. कुछ खाये के दीहीं’

कहिके आपन हथेली हमरा ओरि ना बढाइत त साइत हम ओकरा तरफ ताके के जरूरतो ना  समझतीं.

हम नजर उठवलीं. कोई तेरह-चउदह साल  के दुबर-पातर, बाकिर नाक-नक्श  के एगो सांवर लइकी डेढ-दू बरिस के एगो  मरियल अस बच्चा गोदी से चिपकवले खड़ा  रहे. ओकर कमसीनी आ कदकाठी देखिके हम  अन्दाजा लगावत रहीं कि कोरा में के बच्चा  ओकर भाई आ भतीजा हो सकेला. जिज्ञासा  वश हम पूछि बइठलीं- ‘ई बच्चा तोर भाई ह ?’

‘ना, बाबूजी , ई हमार आपन बेटा ह.’

ओकर ई उत्तर सुनि के हम भउचक रह  गइलीं. चिहाई के ओकरा ओरि गौर से ताके  लगलीं जइसे ओकर उमिर के बढिया से थाह  लगावे के चाहत होखीं. अतना कम उमिर के
लइकी के बच्चा ! घिन होखे लागल. करुणा  आ दया के जगहा घिरना आ उबकाई आवे  लागल. सोचे लगली - निगोड़ी के आपन पेट  भरे के ठेकाना नइखे. भीख मांगत बाड़ी. उपर  से कोढ़ में खाज के तरह ई बलाय ! पेट के  आगि से बेसी ससुरी के आपन तन के अगिन  बुझावे के पड़ गइल. एही उमिर से देह में  आगि लेसले रहे ! छि...छि..! भीतर-भीतर  हम ओकरा प झल्ला उठली. आ ना चहलो प  मुंह से निकल गइल- ‘तहरा पेट के भूख से  अधिक शरीरे के भूख सतावत रहे, देहे के  आगि के चिंता बेसी रहे ? आपन पेट भरत  नइखे, उपर से छन भर के सुख-मउज के फेरा  में  एगो अउर मुसीबत मोल लेहलू ?

हमार दहकत सवाल से उ तिलमिला  गइल. हमार बात ओकरा दिल प बरछी नियन  लागत. व्यंग भरल लहजा में हमरा प प्रहार  कइलस- ‘बाबू जी ई मुसीबत, ई बलाय रउवे  जइसन सफेद पोश लोगन के किरिपा ह. रउवे  सभे के जोर-जुलुम के निसानी - हवस के  चिन्ह - आगि के चिनगारी ह ई.

हम बेजबाब हो गइली. अइसन लागल  जइसे उ हमार नैतिक-बोध के गाल प कसिके  तमाचा जड़ देले होखे. अतना कहि के उ  हमरा भिरी से चल दिहलस. हम अइसे  अपराध बोध से भर गइली. सिर शरम से  झुक गइल.

हम ओकरा कुछ ना दे सकलीं, मगर उ  हमरा के बहुत कुछ दे गइल. हमरा चेतना के  एगो झटका, मन में ई सड़ल समाज का प्रति  घिरना आ छोभ. दिल के कोना में एगो  अनजान अस टीस अउर सोच के एगो नया  दिसा.
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शिवपूजन लाल विद्यार्थी,
प्रकाशपुरी, आरा, भोजपुर

(भोजपुरी में दुनिया के पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर  अक्टूबर 2003 में प्रकाशित भइल रहल.)

बुधवार, 11 दिसंबर 2024

भूख

 लघु कथा

 भूख

 - राम लखन विद्यार्थी

मरद-मेहरारु आपन मारूति कार से जेवर  बेसाहे सोनारी बाजार पहुचलन. जवन सर्राफ के  दोकान में जाये के रहे, ओह दोकान से चार  डेग एनही कार रूक गइल, कारन कि दोकान  के सामने बहत मोरी से एगो अधेड़ अउरत  कादो निकाल-निकाल के आपन तगाड़ी में रखत रहे. मरद कार के हार्न बजावत रहलन  आ उ अउरत अपना धुन में कादो काढ़ते  रहल. अनकसा के मरद कार से मुड़ी निकाल  के डंटलन - ‘‘रे.. तोरा सुनात नइखे का रे.?’

‘सुनात बा...’ अउरत कार का ओर मुंह  फेर के कहलसि.

‘त फेर हटत काहे नइखीस. एह कादो में  तोर का भुलाईल बा, जे परेशान बाड़ीस...’

‘हम आपन भूख खोजत बानी बाबू.’

 अउरत कातर स्वर में कहलसि. एही बीचे दोकान के सेठ उहां आ  गइलन. ‘का बात-बात बा श्रीमान ?’ सेठ  पूछलन.

‘लागऽता ई अउरत पागल हीय. कहतीया  हम कादो में आपन भूख जोहत बानीं.’

सेठ मुस्काइल, कहलस-‘श्रीमान जी ई  अउरत पागल ना हिय. जे कहतीया बिलकुल ठीक कहतीया.’

सेठ के बात सुन के मरद अचरज में पड़  गइल. कहलस ‘‘तू हू त उहे कह देल.’

‘देखीं सरकार, हमनी के दोकान में सोना  चानी के काम होला. सोना-चांदी तरसत खा  उहन के छोट-छोट कन दोकान में जेने-तेने  छितरा जाला. सबेरे दोकान बहराला आ बहारू  मोरी में गिरा दीहल जाला. ओही सोना-चांदी के कन खातिर ई कादो निकालत बिया. पानी  से कादो साफ करी तब सोना-चानी के कन  खरिया जाई. फेरु ओही कन के हमनी के  दोकान मे बेंच दीही. सौ-पचास एकरा भेंटा  जाई.’

मरद चिहाइल- ‘हाय रे भूख !’

तबले उ अउरत कादो भरल तगाड़ी के कपार पर उठा के पानी गिरत नल का ओर  चल दिहलस. मरद आपन कार सर्राफ के दोकान पर ला  के लगा दिहलन. मरद-मेहरारु कार से निकल  के जेवर बेसाहे सर्राफ के दोकान में ढुक  गइलन.
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राम लखन विद्यार्थी,
साहित्य सदन, पानी टंकी, काली स्थान,
डिहरी-ऑन सोन, रोहतास

(भोजपुरी में दुनिया के पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर  सितम्बर 2003 में प्रकाशित भइल रहल.)

नेम प्लेट

 लघु कथा

नेम प्लेट

- माला वर्मा



‘बाबू जी, अब रउआ वृद्धाश्रम में जाके रहे  के पड़ी. एइजा केहू के एतना फुरसत नइखे जे रउआ से बतकूचन करे आ सेवा  टहल में आपन समय बरबाद करे. बेमतलब
 रउआ चक्कर में हमनी के दिमाग बंटल  रहेला.’

‘ना बेटा.... हमरा के ओइजा मत भेजऽ.  आगे से हम तनिकों शिकायत ना करब. जब  तहरा लोग के फुरसत मिली तबहीं खेयाल  रखीह. ई मकान बनावे में हमार जीवन भर के कमाई लाग गइल. अब बुढ़ापा में ई घर छोड़  के कहां जाईं ? अइसहूं बबुआ, ई घर पर पहिला हक हमरे बनेला....बाद में तहरा लोग  के.’

‘खूब कहनी बाबूजी, पिछला हिस्सा  स्वर्गीया माई के नाम, बांया हिस्सा छोटकू के  नाम. अब बताईं....... राउर हिस्सा कहां बचत  बा..?

‘का कहत बाड़ बबुआ, घर के प्रवेश  द्वार पर हमार नाम के तख्ती नइखे  लउकत? ऐकर मतलबे बा कि पूरा घर हमार  ह...’

‘एक बीता काठ के टुकड़ा पर ऐतना  गुमान..! ऐकरा पर राउर नाम के चार अक्षर,  उहो धुंधला गइल बा. ऐकरे बलबूते कहतानी  कि हमार घर ह..? लीं ऐकर मियाद अभीए
 पूरा कर देत बानीं. ना काठ के टुकड़ा रही  ना राउर दावा...’

छन भर में नेम प्लेट कई टुकड़ा में गिर  के जमीन पर बिखर गइल. पुरान लकड़ी के  बिसाते केतना !
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माला वर्मा, हाजीनगर, प.बंगाल-743135 001
(भोजपुरी में दुनिया के पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर  सितम्बर 2003 में प्रकाशित भइल रहल.)