रविवार, 17 नवंबर 2024

आंखि भइल सावन, पुतरिया भइल बदरी

 लेख

आंखि भइल सावन, पुतरिया भइल बदरी

डॉ. आद्याप्रसाद द्विवेदी

बरिस के बारह महीनन में सावन महीना के आपन एक अलग विशेषता होला.  बरखा रितु के असली उछाह सावने महीना में देखे में आवेला.  ए महीना मे सगरे आकाश मानों धरती पर उतरि आवेला.  गरमी के ताप से झुलसत धरती सावन के पा निहाल हो उठेली. बादर से भरल अकाश से पानी झमाझम बरसे लागेला.  रिमझिम-रिमझिम बरसत पानी जिनगी के उदास क्षणन में जादुई रंग भर देला.  सावन प्रकृति के उभरल जवानी के निखार हवे, श्रह्नगार हवे.  ए महीना मेें बरखा के फुहार से मतवाला बनल पाखी-पखेरू स्वागत के गीत गावेलें.  धरती किसिम-किसिम के फूलन के भीनी-भीनी महक से गमगमा उठेले.  प्रकृति रानी अपने सुहाग पे इठला उठेंली.  बिजुरी रहि रहि के बादरन के गोद में चिहुंक उठेले. लता-बल्लरी झूमि-झूमि के पेड़न के गलबाहीं देवे लागेलीं.  सावन के अइसन मनभावन महीना में जब परत-परत के सजल बादरन के झुंड से सगरे अकाश भरल रहेला, बादरन के गर्जन के ताल पर मोर कुहुक-कुहुक के छमाछम नाचत रहेलें, धरती-रानी के हरिअर अँचरा हवा में लहरात रहेला, उमड़त ताल-तलैया आ इठलात नदी एक समा बांधि दिहले रहेलें, अइसने में तन-मन के हुलसि उठल बहुत सहज हवे. अवर जब तन-मन हुलसि उठेला तब सहज रूप से कंठ से लोकगीत फुटि पड़ेला.

सरस सावन, अंखियन के सुख पहुंचावे वाली हरियरी, रिमझिम फुहार, एकर असली चित्र लोकगीतने में देखे के मिलेला.  अइसने गीतन मे ऋतुगीत अवर ओमें पावस गीत भा सावनी गीत विशेष रूप से चर्चा करे योग्य हवे.  पावस के गीतन में कजरी के गीत सबसे अधिक लोकप्रिय हवे.  कजरी लोकगीतन के एगो शैली हवे जवना में सावन के पुरजोर मस्ती भरल रहेला.  एगो कजरी गीत के उदाहरण हम सुना रहल हई जवना में एगो विरहिन नायिका के दर्द के चित्र बा-

सावन मास पिआ घर नाहीं,

मेघवा बरसन लागे ना. 

उमड़ि- उमड़ि के बादर बरसे,

सोर मचावे ना. 

पापी पपिहा पिउ-पिउ बोले,

जिअरा तरसन लागे ना. 

दिन ना चैन, रैन ना निदिया,

सुधि बिसराने ना. 

बन में घूमि-घूमि के मोरवा,

नाचे हूक उठावे ना. 

केकरा संग हम खेलीं कजरी,

जिअरा कसकन लागे ना. 


आकास में घटा चहुं ओर छवले होखे, झीनी-झीनी फुहार पड़त होखे, बादरन के गरज आ बिजुरी के चमक से डर के स्थिति बनल होखे, अइसने में अकेलापन कांट के समान सालेला.  बिरहिन के दिन क चैन आ राति के नींदि हवा हो जाले.  अइसन तलफत स्थिति में नायिका कजरी के धुन में अपने मन के पीड़ा व्यक्त करेले -

गरजै बरसै रे बदरिया,

पिया बिनु मोहे ना सोहाय,

आये बदरा स्याम रंग,

रहे गगन बिच छाय,

रैन अंधेरी घिर रही,

जिया नाजुक डर जाय. 

चमकै दमक रहे दामिनियां,

रैना कैसे बीती जाय. 

चंहक-चंहक रहे चातक,

मंहक-मंहक रहे फूल,

रैन अंधेरी ऐसी गई बात मैं भूल,

पिक, पपीहा औ कोकिला, नीलकंठ-बनमोर,

नाच-नाच कुहकत रहें,

देखि-देखि घन ओर,

ऐसे सावन में सांवरिया,

मोहके कुछु ना सुहाय. 


सावन के झिम-झिम फुहारन के बीच पानी से भरल धान के खेतन में रोपाई करत मजदूरिन सभ जब भावविभोर होके कजरी के गीत गावेली त बातावरण में एगो अजबे मदहोशी छा जाले.  उन लोगन के गीत संगीत के नियम से बंधल नाहीं होला, ओमे कवनों शास्त्रीयता नाहीं होले, तबहूं ओमें जवन मिठास होले, उ अपने सावन के अवते बाग-बगइचा में झूला पड़ि जाला.  लोक जीवन में सावन के झूलन के एगो अलगे रसमयहा होला.  मीठ-मीठ नोंक-झोंक के बीच में ननद-भौजाई झूला झूलेलीं. जवने समय आसमान में करिया करिया बादल फिरल होखे, बौछार पड़ रहल होखे, ठंडी बयार के झोंका पेड़न के एक-एक डाढ़ि के गुदगुदा रहल होखे, ओह समय भींगल-भींगल चूनर ओढ़ले झूला झूलत गांव के गोरी सभ बहुत मनभावन लागेली.  ऐही पर एकजाना हिन्दी कवि के पंक्ति इयाद पड़त बा -

झूले पर सावन झूल रहा,

शैशव और यौवन झूल रहा.


सावन माह में नई आइल बहू के नईहर भेजलो के परम्परा हवे.  वधू सभ बाट जोहत रहेली कब सावन आवे आ उनके बीरन उनके विदाई करावे आवें.  मालूम पड़ेला कि सावन के मस्ती के बहुत खुले रूप में जीयहीं बदे ई परम्परा बनल हवे.  सावन महीना प्रकृति के यौवन हवे.  यौवन हमेशा अल्हड़ होला.  ओके नियम कानून अच्छा नाहीं लागेला. पीहर में नियम-कानून से बंधल जिनगी रहेले लेकिन नईहर में स्वच्छन्द जिनगी रहेले.  एही स्वच्छन्द जिनगी के आनन्द लेवे खातिर सावन में बहु के नईहर में रहले के परम्परा बनल हवे. लेकिन एह परम्परा से अलग हटि के एगो लोकगीत में नायिका अपने ननद से कहि रहल बिया -

भइया मोर अइहें अनवइया,

संवनवा में ना जइबों ननदी. 


ई नायिका सावन के आनन्द अपने पिय-संगम के साथे बितावल चाहति बा. 

अइसहीं एगो लोकगीत में संजोगिनी नायिका के वर्णन बा जवन सावन के झिमिर-झिमिर रात में विह्वल बनल अपने पिय के संगे हिंडोला पर किलोल करत गा रहलि बिया - 

सखि हे! पडे सावन के झींसी,

पिया संग खेलब पचीसी ना.

एह लोकगीत के कड़ी में संजोगिनी नायिका के केतना टंहकार भरल प्रसंग बा. 

कइसन रसमय होत होई उ समय जब कवनों नवही अपने पिय के संगे बतरस करत हंसी-गुदगुदी में पचीसी के खेल खेलति होई.  

संजोगिन आ विरहिनि के ओर से हटि के अगर खुलल रूप से सावन के बखान लोेकगीत में देखल जाव त उ कम मोहक नाहीं हवे.  देखल जाव एगो लोकगीत में कतना रोचक ढंग से सावन के हर पक्ष के केतना सरस आ नीम्मन बरनन कइल गइल बा -

फूले बन फुलवा, बोलन लागे मोरवा,

अब रे मयनवा ना. 

मैना छवले बाटे सगरों संवनवां, अब रे... 

घिरले बदरिया, करे अंधियरिया, अब रे... 

मैना झुरझुर चलल पवनवां, अब रे... 

झिल्ली झनकारे, बनपपिहा पुकारे, अब रे... 

मैना बहे लागी नदिया होय उतनवां, अब रे... 

सजेली गुजरिया, गावेली कजरिआ, अब रे... 

मैना मिलि जुलि झुलेले झुलनवां, अब रे... 

जेकरा सजना परदेस बसेलें, अब रे... 

मैना अंसुवा बहावे दिन रैना, अब रे... 

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डॉ. आद्याप्रसाद द्विवेदी,

टैगोर नगर, सिविल लाइन, बलिया-277001

(अंजोरिया डॉटकॉम पर अगस्त 2003 में अंजोर)