सोमवार, 13 जनवरी 2025

डा. अनिल कुमार ‘आंजनेय’

 संस्मरण

डा. अनिल कुमार ‘आंजनेय’


- डा. राजेन्द्र भारती



‘अतिथि देवो भवः’ कहावत सबके जुबान पर मौजूद बा.  बाकिर हमार एगो अग्रज अइसन बानी कि उहां पर ई कहावत दू तरह से फिट होला.  मानलीं रउरा घरे उहां का रउरा से मिले आ गईनी.  रउरा जबले दण्ड प्रणाम से निपटम तबले उहां के बांया हाथ अपना गांधी झोला में जाई आ बाहर निकली त ओहमें रउरा घर का लईकन खातिर मिठाई भा फल आ रउरा खातिर कवनो साहित्यिक किताब भा पत्रिका होई.  रउरा चाहीं भा ना एह भेंट के सकारहीं के होखी.  काहे कि उहां का सोझा राउर नकारे वाली ताकत ना जाने कहवां बिला जाई.

आपके बूझात होई कि हम कवनो चमत्कारिक तांत्रिक का बारे में कुछ कहल चाहत बानी.  बाकिर अइसन कुछ नईखे.  तबो अईसन कुछ जरूर बा, काहे कि उहां का व्यक्तित्व का सोझा टिकल मुश्किल बा.  उ सौम्य मुस्कुरात तेज से भरल आंखि, दमकत ललाट, स्नेह बिखेरत होंठ, दूनो हाथ प्रणाम का मुद्रा में, आ विनम्रता का बोझ से झुकल देहि.  सामने वाला परिचित बरोबरी के होखो भा शिष्यवत.  तब का कहब आप ई सब देखि-सुन के ?

कुछुओ सीखे के होखे, चाहे कवनो क्षेत्र होखे, कद्र के परिभाषा जाने के होखे, आदमी के मूल्यांकन करे के पद्धति सीखे के होखे त एह युग में हमरा नजर में बस एगो उहें के
बानी.  गुरू, पथ प्रदर्शक, पिता तुल्य अग्रज डा. अनिल कुमार ‘आंजनेय’.
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कदम चौराहा, बलिया - 277001
(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई फरवरी 2004  में अंजोर भइल रहल)

चटकन

 कहानी

चटकन

- बद्री विशाल मिश्र



‘ए बचवा तनी कँवाड़ी खोलऽ, बासो खोलऽ. ’


‘बढ़नी मारो.  चटकबो चाची के निनियो नइखे लागत. ’ - कहत बासो खटिया से उठली त बिहान हो गइल रहे.  अझुराइल आंचर सझुराके माथ पर ओढ़ते बासो जाइ के निकसार के केवाड़ी खोल देहली.  चटकबो चाची चउकठ से भीतर अइली त बासो उनुकर गोड़ छूके आशीरवाद लिहली. '‘चाची तू बईठऽ.  तले ले हम चउका बरतन कर लीं ’- कहत बासो चले चहली तबले केहू बहरी से आवाज दीहल - ‘केहू घर में है जी ?’

‘का हऽ ए दादा !’ बासो के करेजा धकदे कइ दिहलसि बाकि हाथ झारी के चलली त झन्न से हाथ के एगो चूड़ी टूटिके नीचे गिरी परल.

‘बढ़नी मारो, सबेरे सबेरे हाथ के चूड़ी फूटल. ’ - बासो चूड़ी के टूटान आगे देखत केवाड़ी के पल्ला हटवली त एगो सिपाही दुआरी पर ठाढ़ रहे.

‘का बाति हऽ. ’- भंउहा तक आंचर सरकावत बासो पूछली.

‘सोहागिन रहऽ रोजी बढ़ो. ’- कहत चटकबो चाची आंगन के ओसारा में रखल खाटी पर आके मठूस नियर बइठ गइली. सिपाही अपना कन्हा में से झोरा निकालि के बढ़ावत कहले - ‘ई झोरा पहिचानत बाड़ू ?’

चटकबो चाची आ बासो एकही नइहर के रहे लोग.  एहसे सांझि बिहाने जब मन उकताए चटकबो चाची बासो के घरे चलि आवस आ बोल बतिया के मन बहलावसु. ‘हं ’ - बासो कहली - ‘हमरे अदमी के झोरा ह.  हमरा हाथ के टांकल उनुकर नांव एहपर बा. ’

‘एगो बीड़ी धरा के दअ ए बचवा’- चटकबो चाची सूखल ओठ चबावत कहली- ‘इ लुफुति बड़ा बाउर बा. ’

‘देखीं ना, बीड़ी के बण्डल तऽ अपना संगही लेले गइल बाड़न. ’- बासो खड़े खड़े आंखि मीचत कहली.

चटकबो चाची मुसुकइली - ‘हं ए बचवा, ददन त कमाए नू गइल बाड़ें. ’

बासो चंउकली - ‘तहरा कइसे मालूम भइल हऽ ए चाची ? उ तऽ परसवें से गइल बाड़ें. ’

चटकबो चाची एक गोड़ नीचे रखली आ कहली -‘हमार छोटका नतिया नू बाजारी से आवत घरी ददन के देखुवे त गोड़ लगला पर ददने कहलें कि ऊ गोरखपुर नौकरी करे जात बाड़े .  तीन दिन से हमहूं बोखार से पटकाइल रहनी हऽ एहीसे तहरा किहां ना आ पवनी हऽ. ’


‘बाकि अू गुजरि गइलें’- झोरा बासो के हाथ में धरावत सिपाही कहलें - ‘लासि पहिचान में नइखे आवत.  थाना में जाइके शिनाख्त कइ लऽ. ’

‘कइसे मरले ए दादा ?’- कपार पीटत बासो भुईयां गिर परली.

सिपाही कहलें -‘छपरा जंक्शन का लगे दू गो टरेन लड़ि गइल हा.  हम चलत बानी, तू आके पहिचान कइ ल. ’

बासो के गिरत देखिके चटकबो चाची आपन कूबर हुचुकावत लगे पंहुचली आ बासो के अपना अंकवारी में उठाके समुझा बुझा के चुप करावे लगली.

ददन के मरल सुनते भरि गांव टूट पड़ल.  लेकिन केकरा अखतियार बा ददन के जिया देबे के ? एह से देखि समुझिके सभे केहू अपना अपना काम धन्धा में चलि गइल. दिन जात देरि ना लागे.  ददन के सराधो हो गइल.  हित नात सभे विदा लेके उदास मने अपना घरे गइल.  घर में अकेले रहि गइली बासो.  ऊ कहां जासु? उनुकर त पांख टूट गइल रहे.  उड़सु त कइसे उड़सु ?

एक दिन मन मारि के ओसारा में खाटि पर पड़ल रहली.  उनुकर नजरि खूंटि में टांगल ददन के झोरा पर पड़ि गइल.  उनुका हाथ से लाल डोरा से टांकल ददन के नांव आंखि में पड़ल आ बासो के मन अतीत में चलि गइल - ‘का बेजाइं रहे, जदि खेतिये करत रहते त?’

याद आइल बिआह के बिहान भइला बासो जब ससुरा अइली त ददन उनुका के अंकवारी में उनुका के बान्हि के पुचुकारत कहलें - ‘बासो हम त पढ़नी लिखनी ढेर बाकि बाबूजी के मरला का चलते खेती में आ जाये के पड़ल. माई त जनमते साथ छोड़ि दिहलसि.  लेकिन हम तहार साथ ना छोड़बि.  गिरहथिए में खटि कमाई के तहार साध पूरा करबि. ’
 

बासो मचलि के ददन का सीना में समा गइल रहली.  गाड़ी लीक पर चले लागल रहे. ददन खटिके आवसु त बासो एक लोटा पानी आ गुड़ का साथ मुसुकाई के उनकर सोआगत करसु.  अन्न धन घर में पूरा भरल रहे.

इनकर ठाटबाट देखिके चटकबो चाची के सोहाव ना.  काहे कि चाची के दूगो बेटा आ दूनो दू घाट.  एगो तीर घाट त एगो मीर घाट. एगो गंजेड़ी त दोसरका जुआड़ी.  बाप दादा के अरजल खेत बेंचि के गांजा आ जुआ में खतम क के एने ओने मारल फिरत रहले स.  बासो के चहक दहक चटकबो चाची के डाह के कारन बनल रहे.  एह से ददन के घर बिलवावे नेति से बासो के काने लगली.

‘आ हो बासो !’

‘का हऽ ए चाची ?’ -य बासो चाची के पंजरा बइठत बोलली.

‘ददन कहां बाड़े ?’- चाची मुंह सिकुरावत पूछली.  बासो गाल पर हाथ धइ के कहली -‘खेत घूमे नू गइल बाड़ें चाची.  गंहू बूंट के गदराइल छेमी कोमल कोमल बा.  झाोपड़ास खा जात बाड़ी सऽ. ’

‘त ढेले फोरत रहीहें किनोकरियो करिहें?’ चाची उसकवली - ‘अतना पढ़ लिखि के गंवार बनल बाड़ें ददन.  कहीं नोकरी करतन त नगदा पइसा नू भेंटाइत.  तूहूं चार पइसा के आदमी हो जइतू. ’

‘जाये दऽ चाची’ - बासो मुंह फेरत कहली - ‘ जवन करम भाग में लिखल रहेला उहे होला. ’

‘ई का कहलू बासो ?’- चाची आपन छाती पीटत कहली -‘तहार करम फूटि गइल बासो.  हम ई जनितीं कि ददन जिनिगी भर ढेले फोरे के ठेका ले लीहें तऽ हम ददन के बिआह के अगुअई ना कइले रहतीं. ’

बासो चाची के मुंह टुकुर टुकुर ताके लगली.  पांच साल पिछलहीं मरद मुअल चाची के उज्जर मांग निहारत बासो बिगड़ पड़ली - ‘इ कुल्हि बाति हमरा से मति सुनाव.  हमरा केथी के कमी बा ?’

चाची माया फइलवली.  डहकत कहली -‘सब कुछ त बड़ले बा बाकिर ददन के ना रहला पर का होई ? खेत बेचिये बेचि केे नू खाये पड़ी.  जइसे हमार बबुआ लोग करत बा.  ओहि लोग पर त हमार का अधिकार बा ? बाकिर तहरा के हरदम हृदया में धइले रहेनी एहसे दरद बा बचवा.

ददन सरकारी नोकरी करिहें त उनुका नाहियो रहला पर तहरा उनुकर पिनिसिन त मिली. ’

बासो के मन में चाची के बाति धसि गइल.  उचकि के कहली -‘तनी तूंही समुझाव ना चाची उनुका के.  हमार बाति उ एह खातिर ना सुनिहें. ’

‘ना ए बचवा’-चाची बुझि गइली कि तीर आज निसाना पर लाग गइल बा. बाकि आंखि चिआर के कहली -‘बचवा ऊ छनकि जइहें.  हम तहरा के उपाय बतावत बानी. ’

‘का ?’ - बासो सवाल कइली.

‘देखु बचवा’-चाची बासो के हाथ दबा के कहली -‘तेल ले आवसु त मोरी में ढरका दे, चाउर बनिया के दोकान पर बेच दे.  नाना परकार से उनुका के तंग करू.  जब तहरा कहला में आ जइहें तऽ नोकरी के प्रस्ताव करीहऽ.  उनुका त मजबूर होखहीं के बा. ’

बासो चाची के कहला मोताबिक कई महीना तक चीज बतुस नोकसान कइ कइ के ददन के बेहाल करत गइली.  एकदिन ददन खाये बइठलें त छूंछे रोटी परोसि दीहली.  पूछला पर कहली -‘हरवाह चरवाह के इहे नू खाना हऽ.  कमइतीं त जवन चहितीं खइतीं पियतीं.  रउआ हमरा जिनिगी पर कबहूं खेयाल ना कइनी.  देह पर एको थान गहना नइखे.  कबो शहर शहरात के मुंह ना देखनी.  हमार करम फुटि गइल जे अइसना घरे अइनी. ’

बासो के बात ददन के लागि गइल.  ऊ बासो के बनावल झोरा साजि पाथि के नोकरी का टोह में घर से बाहर हो गइलें.

तले धम्म से बिलारि उनुका आगा कूदलि आ बीतल बात बिसरि गइल.  बासो देखली उनुका सोझा चितकबरी बिलारि निकसारि से निकलल आ ओकरा पर झपटे खातिर कुकरु भीतर आ गइलन स.  बासो दउर के केवाड़ी लगावे चलली त सामने आवत खक्ख बिक्ख चेहरा देखली.  ऊ हकबका गइली.  

‘काहे हकबकाइल बाड़ू बासो ? अपना ददन के नईखू चिन्हत ?’

बासो के आंखि में खुशी के लोर छापि लिहलस.  दउर के उनुका गरदन प लटक गइली आ फफने लगली.  कुछ देर बाद जब मन शान्त भइल त पूछली कि इ सब कइसे भइल. 


‘जानतारू, जब हम सुरेमनपुर से छपरा गइनी त गोरखपुर जाये वाली गाड़ी टीसन पर खाड़ रहे.  जाके डिब्बा में जगह धइनी.  बगल में गोन्हिया छपरा के सरलू सिंह भेंटा गइलन.  गाड़ी खुले में देर रहुवे.  पैखाना लागल रहे से सरलू सिंह से कहनी कि तनी हमार झोरवा देखत रहेम.  गाड़ी के पयखाना में गइनी तऽ ओमे पानिये ना रहे.  धउरल मोसाफिर खाना में गइनी.  जल्दी जल्दी फारिग भइनी आ दउरत पलेटफारम पर गइनी तले गाड़ी खुल गइल रहे.  किस्मत देखऽ.  आउटर का लगहीं उ गाड़ी सामने से आवत मेल गाड़ी से टकरा गईल.  कतना जाने मरलें आ कतना घवाहिल भइलें.  हमहूं दउरत गइनी बाकिर ना तऽ सरलू सिंह भेंटइलें ना हमार झोरा.  सोचनी कि हो सकेला ऊहो हमरा चलते उतरि गइल होखसु.  दू घण्टा बाद एगो दोसर गाड़ी गोरखपुर खालिर खुलल त हम ओकरे से चलि गइनी.  ओहिजा सरलू सिंह का पता पर गइनी तऽ मालूम भइल कि ऊ अबहीं चहुंपले नइखन.  दू दिन उनुकर इन्तजार कइनी.  नोकरियो लागे में देरि रहे एहसे चलि अइनी हा.  अब फगुआ के बाद जाएम. ’

बासो धधाइ के ददन के अपना अंकवारी में बान्हि लीहली आ कहली -‘आगि लागो अइसनका नोकरी में.  हमरा अब चटकन लागि गइल बा.  अब हम रउआ के नोकरी पर ना जाये देम.  सेर भर सतुआ बरिस दिन खायेम, जाये ना देब परदेश. ’
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सम्पादक, शब्दकारिता,
अक्षरा प्रकाशन, विशाल संस्थान,
बलिहार, बलिया: 277 205
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दोहा

कविता

दोहा


- बद्रीनारायण तिवारी शाण्डिल्य



माया पगरी माथ पर, बन्हले घुंघरू पांव ,
जोहत जेठ लुवार में, दहकत शीतल छांव.

उठल पच्छिमी छितिज से धुंध भरल बातास,
उबचुभ हो अफना रहल, अब पुरुबी आकास.

लाख जतन केहू कइल, पानी पड़ल ना रेख,
कबहूं कहां मिटा सकल, ब्रह्मा के अभिलेख.

बाप कटोरा हाथ में, अबस पुकारसु राम,
बइठि बहुरिया बगल में, मरद थम्हावे जाम.

जनखा डफलि हाथ में, दिहलसि कतने ताल,
कुछउ हासिल ना भयल, बहुत बजवलसि गाल.

सोन चिरइया देहरी, फेंकलसि चाभी झोंझ,
सूतल मनुवा आलसी, कइलसि देहि न सोझ.

पिछुवारा पहरू ठनकि, कइलसि सबइ सचेत,
अब पछितइले का होई, चिरई चुगलसि खेत.

आजु काल्ह के पहल में, चुकल जवानी जोस,
दांत टुटल, चमड़ी झूलल, का कइला अफसोस.

जोति खेत क्यारी बनल,रोपलसि धान किसान,
पानी बिनु बिरवा झुलसि, भऽइल सांझि, बिहान.

अंगनइया में जमल बा, अब हिंजड़न के भीड़,
प्रजातन्त्र के ताल में, केने फुटी भंसीड़.
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213ए राजपूत नेवरी, बलिया 277001

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तिजोरी

कहानी

तिजोरी


- डा. अमरनाथ चतुर्वेदी



एगो जमाना रहुवे कि जगतपुर के शिवदहिन ओझा के नांव सगरे जवार में रहे.  के ना जाने उनुका के ? जगतपुर के ओझाजी का नाम से उहां का मशहूर रहनी.  कवनो पंचायत भा गांव के मसला फंसे तऽ ओमे पण्डित जी के जरूर बोलावल जाउ.  उहां के पंच का रुप में आपन जवन फैसला सुना दीहीं ओके लोग कोट-कचहरी का फैसला लेखा मानत रहल हअ.  उहों के कवनो लागलपेट बिना न्याय करे में हिचकत ना रहनीं हंऽ.  चाहे एकरा चलते काहे ना केहू से बिगाड़े हो जाव. न्याय के त ई मतलबे भईल कि दूध के दूध आ पानी के पानी हो जाव.

बाकिर समय के घनचक्कर केहू के ना छोड़े. जब राम अईसन राजा पर एगो धोबी लांछन लगा दीहलसि त शिवदहीन जी कवना खेत के मुरई रहलन ? एकदिन उनुको पर पंचायत बिटोरा गईल.

पण्डित शिवदहीन ओझा के पिताजी तीन भाई रहनी.  एकजाना के बिआहे ना भईल रहे. दोसरका के एगो लईकी रहे.  ओकरा जनमे का साल ऊ हैजा से मर गइलन.  ओह लईकिया के जनम के साल गांव में अईसन हैजा फैलल कि शायदे कवनो घर रहे जवना में कवनो मउत ना भइल रहुवे.  कुल्ह मिला के देखल जाव त एहबीच क समय पण्डित जी का परिवार पर बड़ा भारी पड़ल रहे.

एगो रांड़ भउजाई आ एगो बांड़ भाई लेके शिवदहीनजी के पिताजी कईसहूं आपन गाड़ी खींचत रहलें.  कहल जाला कि बड़ घर के रांड़ सांढ़ होली सऽ.  रोज रोज घर में कचकच होखे.  कबों भाई धमकावसु कि हम आपन हिस्सा बेंचि देम त कबो भउजाई झनकसु कि हम आपन हिस्सा बेटी दामाद के लिख देम. लईकिया त तनी सुगबुगइबो कईल कि ‘ए माई, तोरा के बा ? हमहीं नू बानी.  लिखि दे. ’

खैर एही कुल्ही चलत में शिवदहीन जी सेयान हो गइलीं.  घर के वातावरण शान्त रहे, एहसे ईहां के पढ़ाई लिखाई त कायदा से ना हो पावल, बाकिर बचपने से बुद्धि के बड़ा तेज रहनी.  मध्यमा पास करत करत बियाह गवन दूनो हो गईल. अब कहां के पढ़ाई आ कहां के लिखाई ? शिवदहीन जी घर गिरहस्थी में भिड़िया गइलीं.  जवना का चलते बाप के रहते घर के सरदारी पगरी शिवदहीन जी का माथे आ गइल.  एकरा बाद घर बाहर सबले कुल्हि झूर झमेला शिवदहीने जी के निपटे के पड़े.  उनुका लगे खेती का अलावे बाहरी कवनो दोसर आमदनी ना रहे.

शिवदहीन जी अपना बुद्धि आ पौरुष के सहारे परिवार के गाड़ी धीरे धीरे पटरी पर खींचे लगलें.  ओहि बीचे गांव में परधानी के चुनाव भइल आ शिवदहीन जी चुनाव जीत के गांव के परधान बनि गइलन.  धीरे धीरे इहां के लोकप्रियता बढ़े लागल.  घर के आर्थिको दशा सुधरे लागल.  चाचा के आ बड़की माई के विरोध इनका सोझा कम हो गइल, कारण चाहे जवन होखे.

शिवदहीन जी अपने त ना पढ़ि पवलें बाकिर अपना छोटका भाई रामकृपाल के खूब पढ़वलें.  जवना के नतीजा भइल कि पढ़ि लिखि के ऊ डिग्री कालेज में लेक्चरर हो गइलें.  ऊ आपन परिवार लेके शहरे में रहे लगलन.  उनुका तीन गो लइका आ एगो लइकी बिया.  शहर के खर्चा आ मास्टरी के नौकरी.  गांव घर के सुधि के पूछऽता ?

शिवदहीन जी जवना घरी घर के मलिकाना सम्हरलें, ओह घरी आर्थिक स्थिति त गड़बड़ रहबे कइल, खेतो बधार कुल्हि मिला के बीस बिगहा से अधिका ना रहे.  घर माटी के , कच्ची अंगनई रहे जेवना पर लकड़ी के खम्हिया गिरावल रहे. उहे बइठका का कामे आवे.  ओही खम्हियामें एगो लोहा के पुश्तैनी तिजोरी रहे.  जेवना के शुरु शुरु में शिवदहिन जी के बाबा अलीगढ़ से मंगववले रहलें.  तिजोरी त सामाजिक आब दाब के निशानी बड़ले बा, चाहे ओमे कुछु होखे भा मति होखे.

शिवदहिन जी अपना होती पुरनका मकान छोड़ि के अलगा मरदन खातिर बइठका बनववलीं.  पुरनका मकान के साढ़े नौ से मरम्मत करा के ओकर चारो ओर से छल्ली दिअवनी, आ गाय गोरू के अलगा से कच्चा बरदौर बनववनी.  खेतो बधार में कुछ बढ़इबे कइलीं. बेंचला के त कवनो सवाले नइखे. शिवदहिन जी के बाबूजी अपना कुल्ही भाईन का सन्ती एक सौ पचीस बरिस जी के शरीर छोड़नी.  काम किरिया त कइसहूं बीति गइल, बाकिर बरखी ना बीतल.  ओकरा पहिलहीं रामकृपाल जी के बंटवारा के अरजी आ गइल.

ई अरजी रामकृपाल जी के मेहरारू पहिले अपना जेठानी के दिहलीं.  त  ओकरा के शिवदहिन जी का सोझा पेश कइलीं.  बंटवारा के नाम सुनते पहिले त शिवदहिन जी के काठ मारि गइल, बाकिर कुछ देर बाद रामकृपाल जी के आ उनुका मेहरारू के बोला के समझावे के कोशिश कइलीं - ‘का बांटे के बा ? खेत बधार में तहार नांव चढ़िये जाई, आ घर दुआर में जहां चाहऽ उहां रहऽ.  के तहरा के रोकऽता ? बंटवारा कईला पर समाज में बड़ा बेइज्जती होखी.  तूं त अइसहीं कुल्हि के मालिक बाड़.  कुल्हि के मलिकाना देखऽ सम्हारऽ. अधवा के चक्कर में का बाड़ऽ ? हमरो अब सत्तर के नियराइल.  घर गिरहस्थी के बोझा अब चलत नइखे. ’

तबलहीं रामकृपालजी के बड़का कहऽता - ‘ बाबूजी ई कुल्हि चाल पट्टी रहे दीं.  बुढ़उ के पटिया के अबले बड़ा मजा कटनी हं.  हमनी का एहिजा रहम जा ? एहिजा कवन सुविधा बा? हमनी के कुल्हि ना चाहीं.  जवन हिस्सा बा तवने दे दीहीं.  आपन बेंचि बांचि के बिजनेस करब जा. ’ ई बाति सुनते शिवदहीन जी के बेहोशी छा गइल.  जेकरा सोझा बोले के हिम्मत गांव के नीक नीक लोग के ना करे ओकर अपने भतीजा फटर फटर बोले लागे आ भाईयो कहे - ‘भइया ठीके कहत बा. बेरोजगारी में का करीहें स ? पढ़ि लिखि
के नौकरी त अब मिलत नइखे.  ले दे के बिजनेसे एगो चारा बा.  हमरा पासे पूंजी त बा ना कि दे दीहीं.  खेती बारी एह लोग से संपरी ना.  त बेंचि के बिजनेसे करे लोग.  हम कबले कमाइब खिआइब ?’ अब एतना सुनिके ऊ मर्द कईसे होश में रही जे खुदे कुल्हिके सिरजवलने होखे?

अगिला दिने शिवदहीन जी अपना लइका प्रेम प्रकाश से कहलें - ‘ जा, चाचा के संग्हे.  कुल्हि खेत बधार देखा द. ’ आ संगही अपना भाई रामकृपाल से कहलें - ‘ ए कृपाल! जाके जवना खेत में जइसे मन करे वइसे बांट ल.  जवना ओर मन करे तवना ओर ले ल.  एके बात के हमरा ओर से धेआन दीहऽ कि कवनो पंच के मत बोलइहऽ. ’

खेत त बंटा गइल.  बाकिर बाग में आवत आवत रामकृपाल के साला आ गइलन आ घर दुआर के नम्बर आवत आवत दूनो पट्टी के मय रिश्तेदार जुटि गइलन.  अन्तदांव में नम्बर आइल गहना गीठो के, आ तिजोरी खोले के.  अबले त प्रेमप्रकाश शिवदहीनजी के कहला मोताबिक कुल्हि देखावत गइलें आ रामकृपालजी अउर रिश्तेदार लोग मिलि के बांटत गइल लोग. बाकिर अब गहना गीठो का बारे में त प्रेमप्रकाश के कुछ मालूमे ना रहे आ तिजोरी के चाभीओ उनुका लगे ना रहे.  एहसे मामिला फेर शिवदहीनजी किहां पंहुचल.  रिश्तेदार लोग कहल - ‘पण्डित जी, अउरा कुल्हि त हो गइल, बाकिर गहना के बंटवारा आ तिजोरी रहि गइल बा. ’ शिवदहीनजी जब तिजोरी के नांव सुनलें तअ रिश्तेदार लोग के हाथ जोड़ी के कहलें - ‘रउआ सभे अब जाईं.  हम रामकृपाल के अलगा से दे देब. ’ बाकिर ई बाति ना त रामकृपालजी के नीक लागल ना उनुका मलिकाइने के.  रामकृपालजी कुछ कहतें ओकरा पहिलहीं उनुकर मलिकाइन कहतारी - ‘जे गहनवा आ तिजोरी अब चोरिका बंटाई.  तबे नू गबडेढ़िया होई. ’ रामकृपालोजी कहलें - ‘भइया का भइल बा, सभ त हीते नाता बा. एह लोग से कवन चोरिका बा ? सभका सोझा रही त केहू केहू के बेईमान ना कही. ’ बाकिर शिवदहिनजी के ई बाति मंजूर ना भइल आ जेवना के नतीजा भइल कि उनुका पर पंचायत बिटोरा गइल.

शिवदहिनजी जवना इज्जत के बंचावल चाहत रहलीं उहे इज्जत अब समाज में उघार कइल जाई; इहे सोचत ऊहों के पंचायत में पंहुचलीं. पंच लोगन के आदेश भइल - ‘पण्डित जी, न्याय इहे कहऽता जे पुश्तैनी हर चीज में भाई के हिस्सा होला.  एहसे रउआ तिजोरी खोलीं आ ओहमें से पंच लोग का सोझा गहना से गीठो ले जवन होखे आधा आधा बांट दीहीं. ’ तब शिवदहिन जी कहलें - ‘अब ले त हम ई सोंच के तिजोरिया ना खोलत रहीं कि एकरा के हम अकेले प्रेमप्रकाश के देब.  बाकिर पंच के फैसला परमेश्वर के फैसला होला.  एहसे हई तिजोरी के चाभी बा.  देखीं सभे आ ईमानदारी से बांटी सभे. ’ अतना कहिके शिवदहिनजी अपना मुट्ठी में से तिजोरी के चाभी सरपंचजी के सौंप  दीहलें.

ओने सरपंचजी पंचन का संगे तिजोरी खोले चललें आ एने शिवदहिनजी के दिल के धड़कन बढ़े लागल.  जब तिजोरी खुलल त ओहमें खालसा कुछ कागज पत्तर आ एक बोतल सादा पानी मिलल.  पंच लोग जब बिस्तुर बिस्तुर कागज पढ़े लागल त पण्डित जी के जीवन भर के लेखा जोखा मिलल.  मय गहना गोठी के हिसाब किताब के फहरिस्त मिलल.  मोकदिमन के फाइल मिलल आ ओही में पचीस हजार के करजा के सरखतो मिलल.  ई करजा खेत लिखाये बेरा लिहल रहे आ आजुले दिया ना पावल रहे.  अब ई कुल्हि लेबे के केहू तैयार ना होखे.  रामकृपालजी अबहीं कुछ कहतें ओकरा पहिलहीं उनंकर मलिकाइन बोलली - ‘के कहले रहे उहां से जे कि करजा काढ़ के खेत खरीदीं आ घर बनवाईं ? अब के भरी ? हमरा आदमी का लगे पइसा बा जे ऊ दोसरा के करजा भरी ?’ पंचाइत अबहीं कुछ कहित ओकरा पहिलहीं हल्ला भइल जे पण्डितजी के हालत खराब होतिया.  सभ केहू धउरल.  जाके देखल जाउ त उहां के धड़कन बंद हो गइल रहे.

बड़ बुजर्गु  लोग कहल जे - ‘इज्जत के सदमा इज्जतदार ना बरदाश्त कर सके. ’
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द्वारा- श्री बैजनाथ चतुर्वेदी, एडवोकेट,
पशु चिकित्सालय के निकट, खुरहट, मउ

(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई जनवरी 2004  में अंजोर भइल रहल)

का हम खुशी मनाईं

 का हम खुशी मनाईं


- त्रिभुवन प्रसाद सिंह प्रीतम



स्वागत ए छब्बीस जनवरी तोहरा पर बलि जाईं.
ठाला में पाला मरले बा, का हम खुशी मनाईं ?

घर में भूंजल भांग ना लउके, छउके मूस चुहानी.
कुक्कुर सूंघे छूंछ कंहतरी, फेंकल फिरे मथानी .

खाली पेट खराइल, भूक्खन नारा कवन लगाईं ?
ठाला में पाला मरले बा, का हम खुशी मनाईं ?

मेहरी के तन फटही लुगरी, कतना पेवन साटे.
जेकर करजा बा कपार पर, टोके राहे घाटे.

बीया, पानी, खाद, लगान के कईसे जुगुत लगाईं ?
ठाला में पाला मरले बा, का हम खुशी मनाईं ?

बबुआ कहलसि बाबूहो, हमके डरेस बनवा दऽ.
किरमिच वाला चउचक जूता जल्दी से मंगवा दऽ.

टका टेट के टा टा कहलसि, कइसे के समुझाईं ?
ठाला में पाला मरले बा, का हम खुशी मनाईं ?

नेताजी त भासन में राशन के बिछिली कईलें .
आशाके झांसा दे दे के, ऊ अपने दिल्ली गइलें.

ऊ संसद में चानी काटसु, हम छछनी छिछिआईं.
ठाला में पाला मरले बा, का हम खुशी मनाईं ?
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शारदा सदन,
कृष्णानगर, बलिया 277 001
(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई जनवरी 2004  में अंजोर भइल रहल)


सोमवार, 6 जनवरी 2025

हम गीत अमन के गाइला

 कविता

हम गीत अमन के  गाइला


- सुरेश कांटक



जब जब आकाश उदासेला,
हर राह अन्हरिया में होला,
हम आपन दिया जर्राइं ला,
हम गीत अमन के गाइला.

जब बाज झपट्टा मारेला,
बिखधर के फन फुफकारेला,
चिरईन से सांस मिलाईला,
हम गीत अमन के गाइला.  

होरी में धनिया रोवेले,
रो रो  के दुखवा धोवेले,
हम गोबर के गोहराईला,
हम गीत अमन के गाइला.

धरती जब फूंका फारेले,
कुंहंकत कोईल जब हारेले,
हम आपन कलम उठाईं ला,
हम गीत अमन के गाइला.

सागर में आगि लहक जाला,
गागर में बाति बहकि जाला,
हम बहकल के बहलाईं ला,
हम गीत अमन के गाइला.

जब बाघ बकरियन के खाला,
जब दूध बिलरिया पी जाले,
बछरन के नीन भगाईं ला,
हम गीत अमन के गाइला.
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कांट, ब्रह्मपुर, बक्सर - 802 112
(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई जनवरी 2004  में अंजोर भइल रहल)

करनी के फल

 कहानी

 करनी के फल


- दयानन्द मिश्र ‘नन्दन’



मु`शी सीतालाल अपना जमाना के नामी-गिरामी पहलवान रहले. इनका पास आपन खेत ना के बराबर रहे. इनकर बाबूजी दोसरा के  खेत लगान पर ले के बोअसु आ एगो भंईस  जरूरे राखसु. सीतालाल अहिरन के -झुण्ड में  रहसु आ पहलवानी करसु. भंइसि के दूध मिलबे  करे. धीरे धीरे इनकर देहि फूटल आ दस बीस  गांव में पहलवानी में गिनाए लगले. अपना  अखाड़ा पर दस आदमी के लड़ावला के बादो  जब दम ना आइल रहे त चारि पांच मील  दउरसु. धीरे धीरे इनकर नांव प्रदेश भर में  फइल गइल. पूर्वी जिलन में इनकर एगो स्थान  बनि गइल. ई कुल्ही सुन के इनका बाबूजी के  छाती फुला जाव आ ऊ बड़ा खुश होखसु.
 

कमालपुर गांव कायस्थन के रहे. अपना  बल का प्रभाव से अहिर लोग के मिला के  मुंशी सीतालाल कमजोर आदमियन के नाजायज  तरीका से दबा के ओहनी के जमीनन पर कब्जा  क लिहले. पहलवानी का चलते पूरा अहीर  समाज इनका साथे जीये मुए लगले. ओही गांव  के एगो कमजोर अहीर के लड़की बीस बाइस  साल के भइल रहे. ओकरा के बरिआरी ध के  अपना घरे ले अईलन आ ओकरा से शादी क  लीहले. ओही लड़की से सीतालाल के तीन गो  सन्तान भइले - रामाशंकर, दयाशंकर, आ  गौरीशंकर. तीनो जने पहलवान रहले बाकि खाली  रामाशंकर पहलवानी करसु. दयाशंकर खेती  करावसु आ गौरीशंकर रेलवे पुलिस के नौकरी.


खेती सम्हारे गांव में रहे वाला दयाशंकर  के संघतिया चोरे बदमाश रहले. ओहनिये का बल पर उनुकर धंउसपट्टी गांव में चलत रहे आ  एही बल पर ऊ गांव के परधानो हो गईलन. काम बड़ा चकाचक रहे. तीनो जाना के शादी  बिआहो समाज का अनुसार हो गइल. उपर  से देखीं त सबकुछ नीमन लउके. बाकिर असल हालात कुछ अउरे रहे. बाप सीतालाल के  आंख बुढ़ापा में आन्हर हो गइल रहे.  चश्मो पर ना लउके. देहि बेसम्हार भारी हो  गइल रहे. ठेहुनिया बइठल ना जाव आ ऊ  खड़े खाड़ी टट्टी पेशाब करसु.
 
 
रमाशंकर के नौकरी इलाहाबाद में चुंगी आफिस में रहे. दिन में काम आ सबेरे  सांझ अखाड़ा में पहलवानी. कुछ दिन बाद  उनुका लइका त भईल लेकिन मेहरारू मर गइली. उ लइका अपना उमिर में नीकहन  पहलवान निकलल. लेकिन दयानत बिगड़  गइल आ उ गलत संगत में पड़ि  गइलन. एगो लइकी से ईयारी हो गइल  रहे. ओही इयारी का निभावे में टीबी हो  गइल. दवा दारू ढेरे भइल लेकिन उ  बचलन ना. रमाशंकर का जिनिगिये में  परिवार साफ हो गइल. अकेले बुढ़ारी काटे  गांवे आ गइलन.


दयाशंकर लाल के एगो लइका आ एगो लइकी भईल. लइकी बड़ भइल त  ओकर बिआह कवनो कायस्थ परिवार में ना  हो पावल आ बाद में ऊ कवनो यार का  संगे फरार हो गइल. लइका के तबियत  हमेशा खराबे चले. लइकाईं से लेके अन्तिम  घड़ी ले ओकर दवाई बन्द ना भइल.


गौरीशंकर के कवनो बालबच्चा ना  भइले स. नौकरी से रिटायर हो गइलन त  रेलवे थाना पर बड़ा धूमधाम से उनकर  बिदाई समारोह मनावल गइल. सब सामान  पैक क के पहिलहीं ट्रक से गांवे पठा  दीहल रहे. बिहान भइला दू-चार गो सिपाही  इनका के गांवे पंहुचावे संगे चलल लोग.


संयोग अतना खराब रहे कि राहे में हवा लाग गइल आ कपार से लेके गोड़ तक  दाहिना आधा अंग फालिज के शिकार हो  गइल. आवाजो खतम हो गइल. जइसे तइसे  क के सिपाही सब गांव ले पंहुचवले.


सीतालाल का जिनिगीये में उनकर सगरे  परिवार के हालत खराब हो गइल.  दयाशंकर लाल के सोझा आन्हर बाप, बूढ़ महतारी, बूढ़ बड़ भाई, लकवा मारल छोटका  भाई, आ बेमार भतीजा पांच पांच गो आदमी के  इलाज आ खिआवल पिआवल के खरचा. सब
परधानी निकले लागल. आमदनी अठन्नी आ  खरचा साढ़े सात गो वाला हालत रहुवे. अइसना में उहे भइल जवन होला. धीरे धीरे खेत बेचाये लागल. दूइये चार बरिस में सगरी खेत बिका  गइली स. आमदनी के कवनो जरिया रहे ना.  बाद में इलाज बिना एक एक क के बेमारो  लोग मुए लागल. टूटल आत्मा लेके दयोशंकर  चल दीहलन भगवान घरे.


रह गइलन त सीतालाल. उमिर सौ बरिसा.  आंखि के आन्हर. देहि के पटकाइल. दलान प  फेंकाइल रहसु. ना केहू देखे वाला ना सुने  वाला. जवना दुआरी कबो बइठे के जगहा घट  जात रहे ओह दुआरी कुकुरो फेंकरे वाला ना  रहे. कबो कबो पुरनका नाता का चलते मेहरारू  के भतीजन में से कवनो आके फूफा के सेवा  टहल क जा स. ससुरारिये से खाना ओना आ  जाव.


दुआरी से गुजरत केहू के आवाज सुनस त  सीतालाल बोला लेस आ आपन कहानी सुनावे  लागसु. जवना घर के लइकी भगा के बिआह  कइलन ओही घर का टुकड़ा प जिनिगी चलत  रहे. ‘जुलुम किये तीनो गये, धन धरम औ बंस.  ना मानो तो देख लो रावण कौरव कंस.’ उहे  हाल रहे सीतालाल के. अब ऊ इहे कहसु कि  नाजायज काम ना करे के. नाजायज थोरही दिन  चमकेला बाद में ओकरा बिलाये में, नाश होखे  में देरी ना लागे. कहसु कि गंदा राह प चलला  प देहि में गंदा लागबे करी. हमरा जिनिगी से सभे सीखे आ माने कि कलियुग में अपना करनी  के फल एही जिनिगी में भोगे के पड़ेला.
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दिघार, बलिया.
(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई जनवरी 2004  में अंजोर भइल रहल)