कहानी
तिजोरी
- डा. अमरनाथ चतुर्वेदी
एगो जमाना रहुवे कि जगतपुर के शिवदहिन ओझा के नांव सगरे जवार में रहे. के ना जाने उनुका के ? जगतपुर के ओझाजी का नाम से उहां का मशहूर रहनी. कवनो पंचायत भा गांव के मसला फंसे तऽ ओमे पण्डित जी के जरूर बोलावल जाउ. उहां के पंच का रुप में आपन जवन फैसला सुना दीहीं ओके लोग कोट-कचहरी का फैसला लेखा मानत रहल हअ. उहों के कवनो लागलपेट बिना न्याय करे में हिचकत ना रहनीं हंऽ. चाहे एकरा चलते काहे ना केहू से बिगाड़े हो जाव. न्याय के त ई मतलबे भईल कि दूध के दूध आ पानी के पानी हो जाव.
बाकिर समय के घनचक्कर केहू के ना छोड़े. जब राम अईसन राजा पर एगो धोबी लांछन लगा दीहलसि त शिवदहीन जी कवना खेत के मुरई रहलन ? एकदिन उनुको पर पंचायत बिटोरा गईल.
पण्डित शिवदहीन ओझा के पिताजी तीन भाई रहनी. एकजाना के बिआहे ना भईल रहे. दोसरका के एगो लईकी रहे. ओकरा जनमे का साल ऊ हैजा से मर गइलन. ओह लईकिया के जनम के साल गांव में अईसन हैजा फैलल कि शायदे कवनो घर रहे जवना में कवनो मउत ना भइल रहुवे. कुल्ह मिला के देखल जाव त एहबीच क समय पण्डित जी का परिवार पर बड़ा भारी पड़ल रहे.
एगो रांड़ भउजाई आ एगो बांड़ भाई लेके शिवदहीनजी के पिताजी कईसहूं आपन गाड़ी खींचत रहलें. कहल जाला कि बड़ घर के रांड़ सांढ़ होली सऽ. रोज रोज घर में कचकच होखे. कबों भाई धमकावसु कि हम आपन हिस्सा बेंचि देम त कबो भउजाई झनकसु कि हम आपन हिस्सा बेटी दामाद के लिख देम. लईकिया त तनी सुगबुगइबो कईल कि ‘ए माई, तोरा के बा ? हमहीं नू बानी. लिखि दे. ’
खैर एही कुल्ही चलत में शिवदहीन जी सेयान हो गइलीं. घर के वातावरण शान्त रहे, एहसे ईहां के पढ़ाई लिखाई त कायदा से ना हो पावल, बाकिर बचपने से बुद्धि के बड़ा तेज रहनी. मध्यमा पास करत करत बियाह गवन दूनो हो गईल. अब कहां के पढ़ाई आ कहां के लिखाई ? शिवदहीन जी घर गिरहस्थी में भिड़िया गइलीं. जवना का चलते बाप के रहते घर के सरदारी पगरी शिवदहीन जी का माथे आ गइल. एकरा बाद घर बाहर सबले कुल्हि झूर झमेला शिवदहीने जी के निपटे के पड़े. उनुका लगे खेती का अलावे बाहरी कवनो दोसर आमदनी ना रहे.
शिवदहीन जी अपना बुद्धि आ पौरुष के सहारे परिवार के गाड़ी धीरे धीरे पटरी पर खींचे लगलें. ओहि बीचे गांव में परधानी के चुनाव भइल आ शिवदहीन जी चुनाव जीत के गांव के परधान बनि गइलन. धीरे धीरे इहां के लोकप्रियता बढ़े लागल. घर के आर्थिको दशा सुधरे लागल. चाचा के आ बड़की माई के विरोध इनका सोझा कम हो गइल, कारण चाहे जवन होखे.
शिवदहीन जी अपने त ना पढ़ि पवलें बाकिर अपना छोटका भाई रामकृपाल के खूब पढ़वलें. जवना के नतीजा भइल कि पढ़ि लिखि के ऊ डिग्री कालेज में लेक्चरर हो गइलें. ऊ आपन परिवार लेके शहरे में रहे लगलन. उनुका तीन गो लइका आ एगो लइकी बिया. शहर के खर्चा आ मास्टरी के नौकरी. गांव घर के सुधि के पूछऽता ?
शिवदहीन जी जवना घरी घर के मलिकाना सम्हरलें, ओह घरी आर्थिक स्थिति त गड़बड़ रहबे कइल, खेतो बधार कुल्हि मिला के बीस बिगहा से अधिका ना रहे. घर माटी के , कच्ची अंगनई रहे जेवना पर लकड़ी के खम्हिया गिरावल रहे. उहे बइठका का कामे आवे. ओही खम्हियामें एगो लोहा के पुश्तैनी तिजोरी रहे. जेवना के शुरु शुरु में शिवदहिन जी के बाबा अलीगढ़ से मंगववले रहलें. तिजोरी त सामाजिक आब दाब के निशानी बड़ले बा, चाहे ओमे कुछु होखे भा मति होखे.
शिवदहिन जी अपना होती पुरनका मकान छोड़ि के अलगा मरदन खातिर बइठका बनववलीं. पुरनका मकान के साढ़े नौ से मरम्मत करा के ओकर चारो ओर से छल्ली दिअवनी, आ गाय गोरू के अलगा से कच्चा बरदौर बनववनी. खेतो बधार में कुछ बढ़इबे कइलीं. बेंचला के त कवनो सवाले नइखे. शिवदहिन जी के बाबूजी अपना कुल्ही भाईन का सन्ती एक सौ पचीस बरिस जी के शरीर छोड़नी. काम किरिया त कइसहूं बीति गइल, बाकिर बरखी ना बीतल. ओकरा पहिलहीं रामकृपाल जी के बंटवारा के अरजी आ गइल.
ई अरजी रामकृपाल जी के मेहरारू पहिले अपना जेठानी के दिहलीं. त ओकरा के शिवदहिन जी का सोझा पेश कइलीं. बंटवारा के नाम सुनते पहिले त शिवदहिन जी के काठ मारि गइल, बाकिर कुछ देर बाद रामकृपाल जी के आ उनुका मेहरारू के बोला के समझावे के कोशिश कइलीं - ‘का बांटे के बा ? खेत बधार में तहार नांव चढ़िये जाई, आ घर दुआर में जहां चाहऽ उहां रहऽ. के तहरा के रोकऽता ? बंटवारा कईला पर समाज में बड़ा बेइज्जती होखी. तूं त अइसहीं कुल्हि के मालिक बाड़. कुल्हि के मलिकाना देखऽ सम्हारऽ. अधवा के चक्कर में का बाड़ऽ ? हमरो अब सत्तर के नियराइल. घर गिरहस्थी के बोझा अब चलत नइखे. ’
तबलहीं रामकृपालजी के बड़का कहऽता - ‘ बाबूजी ई कुल्हि चाल पट्टी रहे दीं. बुढ़उ के पटिया के अबले बड़ा मजा कटनी हं. हमनी का एहिजा रहम जा ? एहिजा कवन सुविधा बा? हमनी के कुल्हि ना चाहीं. जवन हिस्सा बा तवने दे दीहीं. आपन बेंचि बांचि के बिजनेस करब जा. ’ ई बाति सुनते शिवदहीन जी के बेहोशी छा गइल. जेकरा सोझा बोले के हिम्मत गांव के नीक नीक लोग के ना करे ओकर अपने भतीजा फटर फटर बोले लागे आ भाईयो कहे - ‘भइया ठीके कहत बा. बेरोजगारी में का करीहें स ? पढ़ि लिखि
के नौकरी त अब मिलत नइखे. ले दे के बिजनेसे एगो चारा बा. हमरा पासे पूंजी त बा ना कि दे दीहीं. खेती बारी एह लोग से संपरी ना. त बेंचि के बिजनेसे करे लोग. हम कबले कमाइब खिआइब ?’ अब एतना सुनिके ऊ मर्द कईसे होश में रही जे खुदे कुल्हिके सिरजवलने होखे?
अगिला दिने शिवदहीन जी अपना लइका प्रेम प्रकाश से कहलें - ‘ जा, चाचा के संग्हे. कुल्हि खेत बधार देखा द. ’ आ संगही अपना भाई रामकृपाल से कहलें - ‘ ए कृपाल! जाके जवना खेत में जइसे मन करे वइसे बांट ल. जवना ओर मन करे तवना ओर ले ल. एके बात के हमरा ओर से धेआन दीहऽ कि कवनो पंच के मत बोलइहऽ. ’
खेत त बंटा गइल. बाकिर बाग में आवत आवत रामकृपाल के साला आ गइलन आ घर दुआर के नम्बर आवत आवत दूनो पट्टी के मय रिश्तेदार जुटि गइलन. अन्तदांव में नम्बर आइल गहना गीठो के, आ तिजोरी खोले के. अबले त प्रेमप्रकाश शिवदहीनजी के कहला मोताबिक कुल्हि देखावत गइलें आ रामकृपालजी अउर रिश्तेदार लोग मिलि के बांटत गइल लोग. बाकिर अब गहना गीठो का बारे में त प्रेमप्रकाश के कुछ मालूमे ना रहे आ तिजोरी के चाभीओ उनुका लगे ना रहे. एहसे मामिला फेर शिवदहीनजी किहां पंहुचल. रिश्तेदार लोग कहल - ‘पण्डित जी, अउरा कुल्हि त हो गइल, बाकिर गहना के बंटवारा आ तिजोरी रहि गइल बा. ’ शिवदहीनजी जब तिजोरी के नांव सुनलें तअ रिश्तेदार लोग के हाथ जोड़ी के कहलें - ‘रउआ सभे अब जाईं. हम रामकृपाल के अलगा से दे देब. ’ बाकिर ई बाति ना त रामकृपालजी के नीक लागल ना उनुका मलिकाइने के. रामकृपालजी कुछ कहतें ओकरा पहिलहीं उनुकर मलिकाइन कहतारी - ‘जे गहनवा आ तिजोरी अब चोरिका बंटाई. तबे नू गबडेढ़िया होई. ’ रामकृपालोजी कहलें - ‘भइया का भइल बा, सभ त हीते नाता बा. एह लोग से कवन चोरिका बा ? सभका सोझा रही त केहू केहू के बेईमान ना कही. ’ बाकिर शिवदहिनजी के ई बाति मंजूर ना भइल आ जेवना के नतीजा भइल कि उनुका पर पंचायत बिटोरा गइल.
शिवदहिनजी जवना इज्जत के बंचावल चाहत रहलीं उहे इज्जत अब समाज में उघार कइल जाई; इहे सोचत ऊहों के पंचायत में पंहुचलीं. पंच लोगन के आदेश भइल - ‘पण्डित जी, न्याय इहे कहऽता जे पुश्तैनी हर चीज में भाई के हिस्सा होला. एहसे रउआ तिजोरी खोलीं आ ओहमें से पंच लोग का सोझा गहना से गीठो ले जवन होखे आधा आधा बांट दीहीं. ’ तब शिवदहिन जी कहलें - ‘अब ले त हम ई सोंच के तिजोरिया ना खोलत रहीं कि एकरा के हम अकेले प्रेमप्रकाश के देब. बाकिर पंच के फैसला परमेश्वर के फैसला होला. एहसे हई तिजोरी के चाभी बा. देखीं सभे आ ईमानदारी से बांटी सभे. ’ अतना कहिके शिवदहिनजी अपना मुट्ठी में से तिजोरी के चाभी सरपंचजी के सौंप दीहलें.
ओने सरपंचजी पंचन का संगे तिजोरी खोले चललें आ एने शिवदहिनजी के दिल के धड़कन बढ़े लागल. जब तिजोरी खुलल त ओहमें खालसा कुछ कागज पत्तर आ एक बोतल सादा पानी मिलल. पंच लोग जब बिस्तुर बिस्तुर कागज पढ़े लागल त पण्डित जी के जीवन भर के लेखा जोखा मिलल. मय गहना गोठी के हिसाब किताब के फहरिस्त मिलल. मोकदिमन के फाइल मिलल आ ओही में पचीस हजार के करजा के सरखतो मिलल. ई करजा खेत लिखाये बेरा लिहल रहे आ आजुले दिया ना पावल रहे. अब ई कुल्हि लेबे के केहू तैयार ना होखे. रामकृपालजी अबहीं कुछ कहतें ओकरा पहिलहीं उनंकर मलिकाइन बोलली - ‘के कहले रहे उहां से जे कि करजा काढ़ के खेत खरीदीं आ घर बनवाईं ? अब के भरी ? हमरा आदमी का लगे पइसा बा जे ऊ दोसरा के करजा भरी ?’ पंचाइत अबहीं कुछ कहित ओकरा पहिलहीं हल्ला भइल जे पण्डितजी के हालत खराब होतिया. सभ केहू धउरल. जाके देखल जाउ त उहां के धड़कन बंद हो गइल रहे.
बड़ बुजर्गु लोग कहल जे - ‘इज्जत के सदमा इज्जतदार ना बरदाश्त कर सके. ’
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द्वारा- श्री बैजनाथ चतुर्वेदी, एडवोकेट,
पशु चिकित्सालय के निकट, खुरहट, मउ
(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई जनवरी 2004 में अंजोर भइल रहल)
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