कहानी
चटकन
- बद्री विशाल मिश्र
‘ए बचवा तनी कँवाड़ी खोलऽ, बासो खोलऽ. ’
‘बढ़नी मारो. चटकबो चाची के निनियो नइखे लागत. ’ - कहत बासो खटिया से उठली त बिहान हो गइल रहे. अझुराइल आंचर सझुराके माथ पर ओढ़ते बासो जाइ के निकसार के केवाड़ी खोल देहली. चटकबो चाची चउकठ से भीतर अइली त बासो उनुकर गोड़ छूके आशीरवाद लिहली. '‘चाची तू बईठऽ. तले ले हम चउका बरतन कर लीं ’- कहत बासो चले चहली तबले केहू बहरी से आवाज दीहल - ‘केहू घर में है जी ?’
‘का हऽ ए दादा !’ बासो के करेजा धकदे कइ दिहलसि बाकि हाथ झारी के चलली त झन्न से हाथ के एगो चूड़ी टूटिके नीचे गिरी परल.
‘बढ़नी मारो, सबेरे सबेरे हाथ के चूड़ी फूटल. ’ - बासो चूड़ी के टूटान आगे देखत केवाड़ी के पल्ला हटवली त एगो सिपाही दुआरी पर ठाढ़ रहे.
‘का बाति हऽ. ’- भंउहा तक आंचर सरकावत बासो पूछली.
‘सोहागिन रहऽ रोजी बढ़ो. ’- कहत चटकबो चाची आंगन के ओसारा में रखल खाटी पर आके मठूस नियर बइठ गइली. सिपाही अपना कन्हा में से झोरा निकालि के बढ़ावत कहले - ‘ई झोरा पहिचानत बाड़ू ?’
चटकबो चाची आ बासो एकही नइहर के रहे लोग. एहसे सांझि बिहाने जब मन उकताए चटकबो चाची बासो के घरे चलि आवस आ बोल बतिया के मन बहलावसु. ‘हं ’ - बासो कहली - ‘हमरे अदमी के झोरा ह. हमरा हाथ के टांकल उनुकर नांव एहपर बा. ’
‘एगो बीड़ी धरा के दअ ए बचवा’- चटकबो चाची सूखल ओठ चबावत कहली- ‘इ लुफुति बड़ा बाउर बा. ’
‘देखीं ना, बीड़ी के बण्डल तऽ अपना संगही लेले गइल बाड़न. ’- बासो खड़े खड़े आंखि मीचत कहली.
चटकबो चाची मुसुकइली - ‘हं ए बचवा, ददन त कमाए नू गइल बाड़ें. ’
बासो चंउकली - ‘तहरा कइसे मालूम भइल हऽ ए चाची ? उ तऽ परसवें से गइल बाड़ें. ’
चटकबो चाची एक गोड़ नीचे रखली आ कहली -‘हमार छोटका नतिया नू बाजारी से आवत घरी ददन के देखुवे त गोड़ लगला पर ददने कहलें कि ऊ गोरखपुर नौकरी करे जात बाड़े . तीन दिन से हमहूं बोखार से पटकाइल रहनी हऽ एहीसे तहरा किहां ना आ पवनी हऽ. ’
‘बाकि अू गुजरि गइलें’- झोरा बासो के हाथ में धरावत सिपाही कहलें - ‘लासि पहिचान में नइखे आवत. थाना में जाइके शिनाख्त कइ लऽ. ’
‘कइसे मरले ए दादा ?’- कपार पीटत बासो भुईयां गिर परली.
सिपाही कहलें -‘छपरा जंक्शन का लगे दू गो टरेन लड़ि गइल हा. हम चलत बानी, तू आके पहिचान कइ ल. ’
बासो के गिरत देखिके चटकबो चाची आपन कूबर हुचुकावत लगे पंहुचली आ बासो के अपना अंकवारी में उठाके समुझा बुझा के चुप करावे लगली.
ददन के मरल सुनते भरि गांव टूट पड़ल. लेकिन केकरा अखतियार बा ददन के जिया देबे के ? एह से देखि समुझिके सभे केहू अपना अपना काम धन्धा में चलि गइल. दिन जात देरि ना लागे. ददन के सराधो हो गइल. हित नात सभे विदा लेके उदास मने अपना घरे गइल. घर में अकेले रहि गइली बासो. ऊ कहां जासु? उनुकर त पांख टूट गइल रहे. उड़सु त कइसे उड़सु ?
एक दिन मन मारि के ओसारा में खाटि पर पड़ल रहली. उनुकर नजरि खूंटि में टांगल ददन के झोरा पर पड़ि गइल. उनुका हाथ से लाल डोरा से टांकल ददन के नांव आंखि में पड़ल आ बासो के मन अतीत में चलि गइल - ‘का बेजाइं रहे, जदि खेतिये करत रहते त?’
याद आइल बिआह के बिहान भइला बासो जब ससुरा अइली त ददन उनुका के अंकवारी में उनुका के बान्हि के पुचुकारत कहलें - ‘बासो हम त पढ़नी लिखनी ढेर बाकि बाबूजी के मरला का चलते खेती में आ जाये के पड़ल. माई त जनमते साथ छोड़ि दिहलसि. लेकिन हम तहार साथ ना छोड़बि. गिरहथिए में खटि कमाई के तहार साध पूरा करबि. ’
बासो मचलि के ददन का सीना में समा गइल रहली. गाड़ी लीक पर चले लागल रहे. ददन खटिके आवसु त बासो एक लोटा पानी आ गुड़ का साथ मुसुकाई के उनकर सोआगत करसु. अन्न धन घर में पूरा भरल रहे.
इनकर ठाटबाट देखिके चटकबो चाची के सोहाव ना. काहे कि चाची के दूगो बेटा आ दूनो दू घाट. एगो तीर घाट त एगो मीर घाट. एगो गंजेड़ी त दोसरका जुआड़ी. बाप दादा के अरजल खेत बेंचि के गांजा आ जुआ में खतम क के एने ओने मारल फिरत रहले स. बासो के चहक दहक चटकबो चाची के डाह के कारन बनल रहे. एह से ददन के घर बिलवावे नेति से बासो के काने लगली.
‘आ हो बासो !’
‘का हऽ ए चाची ?’ -य बासो चाची के पंजरा बइठत बोलली.
‘ददन कहां बाड़े ?’- चाची मुंह सिकुरावत पूछली. बासो गाल पर हाथ धइ के कहली -‘खेत घूमे नू गइल बाड़ें चाची. गंहू बूंट के गदराइल छेमी कोमल कोमल बा. झाोपड़ास खा जात बाड़ी सऽ. ’
‘त ढेले फोरत रहीहें किनोकरियो करिहें?’ चाची उसकवली - ‘अतना पढ़ लिखि के गंवार बनल बाड़ें ददन. कहीं नोकरी करतन त नगदा पइसा नू भेंटाइत. तूहूं चार पइसा के आदमी हो जइतू. ’
‘जाये दऽ चाची’ - बासो मुंह फेरत कहली - ‘ जवन करम भाग में लिखल रहेला उहे होला. ’
‘ई का कहलू बासो ?’- चाची आपन छाती पीटत कहली -‘तहार करम फूटि गइल बासो. हम ई जनितीं कि ददन जिनिगी भर ढेले फोरे के ठेका ले लीहें तऽ हम ददन के बिआह के अगुअई ना कइले रहतीं. ’
बासो चाची के मुंह टुकुर टुकुर ताके लगली. पांच साल पिछलहीं मरद मुअल चाची के उज्जर मांग निहारत बासो बिगड़ पड़ली - ‘इ कुल्हि बाति हमरा से मति सुनाव. हमरा केथी के कमी बा ?’
चाची माया फइलवली. डहकत कहली -‘सब कुछ त बड़ले बा बाकिर ददन के ना रहला पर का होई ? खेत बेचिये बेचि केे नू खाये पड़ी. जइसे हमार बबुआ लोग करत बा. ओहि लोग पर त हमार का अधिकार बा ? बाकिर तहरा के हरदम हृदया में धइले रहेनी एहसे दरद बा बचवा.
ददन सरकारी नोकरी करिहें त उनुका नाहियो रहला पर तहरा उनुकर पिनिसिन त मिली. ’
बासो के मन में चाची के बाति धसि गइल. उचकि के कहली -‘तनी तूंही समुझाव ना चाची उनुका के. हमार बाति उ एह खातिर ना सुनिहें. ’
‘ना ए बचवा’-चाची बुझि गइली कि तीर आज निसाना पर लाग गइल बा. बाकि आंखि चिआर के कहली -‘बचवा ऊ छनकि जइहें. हम तहरा के उपाय बतावत बानी. ’
‘का ?’ - बासो सवाल कइली.
‘देखु बचवा’-चाची बासो के हाथ दबा के कहली -‘तेल ले आवसु त मोरी में ढरका दे, चाउर बनिया के दोकान पर बेच दे. नाना परकार से उनुका के तंग करू. जब तहरा कहला में आ जइहें तऽ नोकरी के प्रस्ताव करीहऽ. उनुका त मजबूर होखहीं के बा. ’
बासो चाची के कहला मोताबिक कई महीना तक चीज बतुस नोकसान कइ कइ के ददन के बेहाल करत गइली. एकदिन ददन खाये बइठलें त छूंछे रोटी परोसि दीहली. पूछला पर कहली -‘हरवाह चरवाह के इहे नू खाना हऽ. कमइतीं त जवन चहितीं खइतीं पियतीं. रउआ हमरा जिनिगी पर कबहूं खेयाल ना कइनी. देह पर एको थान गहना नइखे. कबो शहर शहरात के मुंह ना देखनी. हमार करम फुटि गइल जे अइसना घरे अइनी. ’
बासो के बात ददन के लागि गइल. ऊ बासो के बनावल झोरा साजि पाथि के नोकरी का टोह में घर से बाहर हो गइलें.
तले धम्म से बिलारि उनुका आगा कूदलि आ बीतल बात बिसरि गइल. बासो देखली उनुका सोझा चितकबरी बिलारि निकसारि से निकलल आ ओकरा पर झपटे खातिर कुकरु भीतर आ गइलन स. बासो दउर के केवाड़ी लगावे चलली त सामने आवत खक्ख बिक्ख चेहरा देखली. ऊ हकबका गइली.
‘काहे हकबकाइल बाड़ू बासो ? अपना ददन के नईखू चिन्हत ?’
बासो के आंखि में खुशी के लोर छापि लिहलस. दउर के उनुका गरदन प लटक गइली आ फफने लगली. कुछ देर बाद जब मन शान्त भइल त पूछली कि इ सब कइसे भइल.
‘जानतारू, जब हम सुरेमनपुर से छपरा गइनी त गोरखपुर जाये वाली गाड़ी टीसन पर खाड़ रहे. जाके डिब्बा में जगह धइनी. बगल में गोन्हिया छपरा के सरलू सिंह भेंटा गइलन. गाड़ी खुले में देर रहुवे. पैखाना लागल रहे से सरलू सिंह से कहनी कि तनी हमार झोरवा देखत रहेम. गाड़ी के पयखाना में गइनी तऽ ओमे पानिये ना रहे. धउरल मोसाफिर खाना में गइनी. जल्दी जल्दी फारिग भइनी आ दउरत पलेटफारम पर गइनी तले गाड़ी खुल गइल रहे. किस्मत देखऽ. आउटर का लगहीं उ गाड़ी सामने से आवत मेल गाड़ी से टकरा गईल. कतना जाने मरलें आ कतना घवाहिल भइलें. हमहूं दउरत गइनी बाकिर ना तऽ सरलू सिंह भेंटइलें ना हमार झोरा. सोचनी कि हो सकेला ऊहो हमरा चलते उतरि गइल होखसु. दू घण्टा बाद एगो दोसर गाड़ी गोरखपुर खालिर खुलल त हम ओकरे से चलि गइनी. ओहिजा सरलू सिंह का पता पर गइनी तऽ मालूम भइल कि ऊ अबहीं चहुंपले नइखन. दू दिन उनुकर इन्तजार कइनी. नोकरियो लागे में देरि रहे एहसे चलि अइनी हा. अब फगुआ के बाद जाएम. ’
बासो धधाइ के ददन के अपना अंकवारी में बान्हि लीहली आ कहली -‘आगि लागो अइसनका नोकरी में. हमरा अब चटकन लागि गइल बा. अब हम रउआ के नोकरी पर ना जाये देम. सेर भर सतुआ बरिस दिन खायेम, जाये ना देब परदेश. ’
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सम्पादक, शब्दकारिता,
अक्षरा प्रकाशन, विशाल संस्थान,
बलिहार, बलिया: 277 205
(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई फरवरी 2004 में अंजोर भइल रहल)
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