लघुकथा
चिनगारी
- शिवपूजन लाल विद्यार्थी
हम आफिस के काम निबटा के पटना से लवटत रहीं. ट्रेन में काफी देर रहे. करीब तीन घंटा से प्लेट फारम प बइठल-बइठल बोर होत रहीं. गाड़ियन के विलम्ब से चले के सूचना सुनि-सुनि के भीतर-भीतर खीझ होत रहे आ रेलवे प्रशासन पर पिनपिनाहट. समय गुजारल बड़ा कठिन होत रहे. अगल-बगल में कवनों जान-पहचान के अदिमीओ ना लउकत रहे कि बोल-बतिया के समय काटल जाव.
बोरियत से जूझे खातिर आखिरकार बैग में से एगो पुरान पत्रिका निकालि के उलटि पुलटि करे लगलीं. बाकिर पत्रिका पढे में जी ना रमत रहे. मन के बझावे खातिर झूठो-मूठो के पन्ना उलटत रहीं.
तबे एगो युवती सामने आके खाड़ हो गइल. हालांकि हमार नजर पत्रिका प गड़ल रहे, मगर आहट से ओकर उपस्थिति के हमरा आभास मिल गइल. अगर उ - ‘बाबू जी, बच्चा बहुत भुखाइल बा. कुछ खाये के दीहीं’
कहिके आपन हथेली हमरा ओरि ना बढाइत त साइत हम ओकरा तरफ ताके के जरूरतो ना समझतीं.
हम नजर उठवलीं. कोई तेरह-चउदह साल के दुबर-पातर, बाकिर नाक-नक्श के एगो सांवर लइकी डेढ-दू बरिस के एगो मरियल अस बच्चा गोदी से चिपकवले खड़ा रहे. ओकर कमसीनी आ कदकाठी देखिके हम अन्दाजा लगावत रहीं कि कोरा में के बच्चा ओकर भाई आ भतीजा हो सकेला. जिज्ञासा वश हम पूछि बइठलीं- ‘ई बच्चा तोर भाई ह ?’
‘ना, बाबूजी , ई हमार आपन बेटा ह.’
ओकर ई उत्तर सुनि के हम भउचक रह गइलीं. चिहाई के ओकरा ओरि गौर से ताके लगलीं जइसे ओकर उमिर के बढिया से थाह लगावे के चाहत होखीं. अतना कम उमिर के
लइकी के बच्चा ! घिन होखे लागल. करुणा आ दया के जगहा घिरना आ उबकाई आवे लागल. सोचे लगली - निगोड़ी के आपन पेट भरे के ठेकाना नइखे. भीख मांगत बाड़ी. उपर से कोढ़ में खाज के तरह ई बलाय ! पेट के आगि से बेसी ससुरी के आपन तन के अगिन बुझावे के पड़ गइल. एही उमिर से देह में आगि लेसले रहे ! छि...छि..! भीतर-भीतर हम ओकरा प झल्ला उठली. आ ना चहलो प मुंह से निकल गइल- ‘तहरा पेट के भूख से अधिक शरीरे के भूख सतावत रहे, देहे के आगि के चिंता बेसी रहे ? आपन पेट भरत नइखे, उपर से छन भर के सुख-मउज के फेरा में एगो अउर मुसीबत मोल लेहलू ?
हमार दहकत सवाल से उ तिलमिला गइल. हमार बात ओकरा दिल प बरछी नियन लागत. व्यंग भरल लहजा में हमरा प प्रहार कइलस- ‘बाबू जी ई मुसीबत, ई बलाय रउवे जइसन सफेद पोश लोगन के किरिपा ह. रउवे सभे के जोर-जुलुम के निसानी - हवस के चिन्ह - आगि के चिनगारी ह ई.
हम बेजबाब हो गइली. अइसन लागल जइसे उ हमार नैतिक-बोध के गाल प कसिके तमाचा जड़ देले होखे. अतना कहि के उ हमरा भिरी से चल दिहलस. हम अइसे अपराध बोध से भर गइली. सिर शरम से झुक गइल.
हम ओकरा कुछ ना दे सकलीं, मगर उ हमरा के बहुत कुछ दे गइल. हमरा चेतना के एगो झटका, मन में ई सड़ल समाज का प्रति घिरना आ छोभ. दिल के कोना में एगो अनजान अस टीस अउर सोच के एगो नया दिसा.
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शिवपूजन लाल विद्यार्थी,
प्रकाशपुरी, आरा, भोजपुर
(भोजपुरी में दुनिया के पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर अक्टूबर 2003 में प्रकाशित भइल रहल.)
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