लघुकथा संग्रह थाती से तीनगो कथा
अनेसा
गौरैया जीव-जान से अपना अंडा के सेवत रहे. चाहे ऊ अँगना के मुड़ेरा प चहचहात होखे, फुर्र से उड़िके बगइचा में दाना चुगति होखे, भा पाँखि फड़फड़ावत बालू में नहातो होखे - ओकरा दिल-दिमाग में हरपल अपना अंडवे के फिकिर समाइल रहत रहे. ऊ त ओह दिन के बाट जोहति रहे, जब अंडा से बच्चा निकलि के ओकरा खोंता में चहचहा उठी.
आखिर ऊ घरी आइये गइल. अब गौरैया बड़ा जतन से ठोर में दाना दबा के ले आवे आ चीं-ची करत चूजा के चुगावे लागे. ओकरा के निरखि के ओकर मन बेरि-बेरि उमगि उठत रहे.
बाकिर अचक्के में गौरैया के मन में उदासी के बदरि मँड़राये लागलि. एगो अनजान डर से ऊ बेरि-बेरि थरथरा उठति रहे. ना जाने कब दुख के बरखा बरिसे लागे!
बगलगीर गौरैया ओकरा उदासी के कारन जाने के गरज से पूछलसि, "बहिना! अब त तहरा बचवन के पांखियो लागि गइल. आज त ऊ खुदे फुदुकि-फुदुकि के दाना बीनत रहल हा. बाकिर तबो तू काहें उदास बाड़ू?"
"इहे त उदसी के कारन बा बहिनी!" गौरैया के डबडबाइल आँखि से बेचारगी टपके लागल, "अब ओकर का भरोसा कि शहर का ओरि भागत गँवई लरिकन नियर दीगर घर बसावे ऊ कब उड़न-छू हो जाई! "
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मेहनताना
थाकल डेग भरत सुधीर स्कूल का ओरि बढ़ल जात रहले. उनकर मूड अबहूँ उखड़ल-उखड़ल-अस रहे. थोरहीं देर पहिले त, जब ऊ स्कूल जाए खातिर तेयारिये करत रहले, उधार के पइसा वसूले खातिर राधेश्याम बनिया तगादा करे आ गइल रहले आ उन्हुकरा लाख गिड़गिड़इला आ चिरउरी कइल० पर जरला प नून छिरिकिए के लवटल रहले. सुधीर के मन में ओही घरी आइल रहे जे अबहिंये इस्तीफा देके आदर्श शिशु विद्यालय क४ एह दू कौड़ी के नौकरी के लात मारि देसु. एह पबल्िक स्कूल के बदौलते त प्रबन्धक, जवन प्रिन्सिपलो बा, लाखन रोपेया से झुनझुना नियर खेलेला, बाकिर तनखाह का नाम पर हमनी के दू हजार पर दस्तखत करा के दिही पाँच सौ रुपुली आ ऊहो दस दिन धउरला का बाद. एक त दिन भर लइकन का संगे माथापच्ची करत उन्हनीं के चरवाही करऽ आ उपर से प्रिन्सिपलोके डाँट-डपट सुनऽ. स्साला! ऊ सड़के प पच्च-से थूकि दिहले.
गौड़िया मठ का लगे लोगन के भीड़ देखिके सुधीरो उहाँ जा चहुँपले. ऊहाँ एगो रेकसावाला के संगे एगो बाबू के कहा-सुनी चलत रहे. रेकसावाला महेन्द्रू मुहल्ला से इहाँ तक के भाड़ा बीस रोपेया माँगत रहे, बाकिर बाबू सात रुपिया से एको पइसा बेसी देवे खातिर तेयान रहले.
"ठीक बा बाबू साहब, रउआँ इहो सात रोपेया लेले जाईं. एगो गरीब के मेहनताना मारि के रउएं राजा हो जाईं!" रेकसावाला बाबू के दिहल रोपेया फेरु उन्हुके थमा दिहलस.
"जा, जवन करे के होई तवन करि लीहऽ! हुँह!" बाबू मुसुकी कटले आ रोपेया बगली में धरत आगा बढ़े लगले.
बाकिर रेकसावाला फेरु उन्हुका ओरि लपकल, "कहवां चलि दिहलऽ बाबू साहेब? ताव देखावत बाड़? भिखमंगी करत बानी का हम तहरा से? वाजिब मेहनताना देक जा, नाहीं त ठीक ना होई, बुझलऽ?" रेकसावाला पाछा से ओह बाबू के कमीज के कॉलर पकड़ि लिहलस आ अपना ओरि खीँचे लागल.
सुधीर के मुट्ठी अपने आप कसाए लगली स. उन्हुका बुझाइल जइसे रेकसावाला का जगहा पर ऊ खुदे ठाढ़ होखसु, जइसे ऊ पाँच सौ रुपुली स्कूल के प्रिन्सिपल का मुँह पर फेंकि देले होखसु आ कुरता के कॉलर ध के उचित मेहनताना के माँग करत होखसु.
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अछरंग
सामू पण्डित के पतरा देखे, जनेव बिआह सकलप करावे आ जनमकुण्डली बनावे वाला पंडिताइ विरासत में मिलल रहे. उन्हुका बाबूजी ले त ई जजमनिका वाला पेशा चलल, बाकिर उनका बाद सामू सुकुल एह धन्धा के आगा बढ़ावे से नकारि दिहलन. ओइसहूं अब जजमना लोग पंडिजी के ओछ नजर से देखे लागल रहे. एह जजमनिका से परिवार के नून रोटी के जोगाड़ौ बइठावल अब आसान ना रहे. सामू सुकुल के पढ़ल लिखल मन एह भिखमंगी खातरि कतई तेयार ना रहे.
सामू सुकुल टोला के पढ़ुवा लरिकन के ट्यूशन पढ़ावे के चहलन. बाकिर बड़ लोग एह बात पर बिदकि गइल. जजमनिका के धन्हा करेवाला परिवार के सामू भला लरिकन के नीके तरी अंगरेजी साइन्स का पढ़ा सकेले!
हारल पाछल सामू पंडित दलितन के टोला में जाके उन्हनी से बतिअवलनि. ऊ लोग पंडी जी के हाथो हाथ लिहल आ खूब खातिर भाव कइल. अब सामू सुकुल रोज उन्हनी के लरिकन के पढ़ावे लिखावे लगलन
बाकिर कुछ दिन बाद जब गुधबेरि भइला सांझी का पंडी जी घरे लवटत रहलन त बाभन टोला के नवही उन्हुका के घेरि लिहलन स, देख समुवा, तें बाभन के औलाद होके जाति बिरादरी के माथ पर अछरंग के टीका लगावत बाड़े. नानंह जाति के ओह जाहिलन के तें पढ़ुवा बनावल चाहत बाड़े? काल्हु से कबो उन्हनीं के टोला का ओरि जात लउकले, त हाथ गोड़ तूरि के भुरकुस क देबि जा, बुझले? एह तरे जिए दिहला से त तोरा के मुवाइए दिह नीमन होई.
सामू सुकुल तय ना कऽ पावत रहलन कि उन्हुका जीए के बा कि सांचहू मरि जाएके बा?
भगवती प्रसाद द्विवेदी, टेलीफोन भवन, पो.बाक्स ११५, पटना ८००००१
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