शनिवार, 16 नवंबर 2024

नयापन परंपरा के निषेध नइखे

 

नयापन परंपरा के निषेध नइखे



परिचय दास


एह बेर कातिक मास
वइसहीं ना बीत गइल.
भीतर कुच अकुलाहट अनुभूत भइल.
क्षेत्र केमेला लगेला.
मेला के राजकीय
आ वैयक्तिक तइयारी होला.
अपना-अपना घर आँगन
लीप-पोत के
कइल जाला चित्रित.
रस्तन के होला सफाई.
आवेलें अतिथि
तऽ हर्षित मन से स्वागत होला. ....
किन्तु एह बेर कुछ भिन्न रहल.
सूर्यषष्ठी
(जेके भोजपुरी, मगही आ मैथिली में
'छठ' कहल जाला)
के परब
गाजा-बाजा से मनवला के
फइसला भइल.
एह परब में
प्रातःकालीन सुर्य के
दिहल जाला अरघ.
सो, बड़ा भोरहीं में
आगे-आगे बाजा वाले
आ पाछे-पाछे ग्राम जन.
यात्रा-गीत के धुन पर
लोग मंदिर के जलाशय पर पहुँचल.
अरघ दिहलें,
सूर्योदय भइल
आ लौटला के भइलें.
हम देखलीं :-
गाजा-बाजा वाले बजनियन में
साइते केहू के गोड़ में चप्पल होखे
आ देंही पर बिना फटल
साफ-सुत्थर कपड़ा.

यद्यपि एके लिखत
हमरा के
सांस्कृतिक तथ्य के व्याख्या करे के चाहीं,
किन्तु हम तऽ
जीवन के वोह पक्ष के भी
देखला के अभ्यासी बानीं,
जहवाँ 'ललित' अपना 'करूण'
रूप में बा.
'ललित' विरोधी नइखे 'करुण' के.
दृष्टि के नैरंतर्य से
दुनहुन के अंतरण के अभास हो जाला..
'ललित' कौनों अभिजात नइखे.
कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु
अइसहीं पात्रन के
सृजन कइले बानीं
जवन जिनिगी के
गहन पीर में भी
उल्लास मनावत लउकेलें.
करुणा हमनी के कब्बों
ना रहे देले एकाकी.

भारतीय सामान्यजन
अपना अभिव्यक्ति में
मितभाषी आ कर्म मे
बहुआयामी होला.
ऊ चंदन नियर घिस के
सुगंध बिखेरत रहेला.
ओकरा के धूसर पाण्डुलिपि
समझीँ :-
बहराँ से देखला पर
अक्षर मरियाउर,
किन्तु अर्थ ओतने
गहिर.
सामान्यजन
'शब्द' आ 'अर्थ' के एगो सृजनशील परिभाषा हवे.

लोकवाद्यन के वादक
अक्सर जिनिगी जीएलें दरिद्रता के.
तुरही, मुरचंग, मृदंग, ढोलक, नगाड़ा आदि
उनके वाद्य होलें.
प्राचीन वाद्यन में
बाँसुरी
आ नया में
कैसियो आ हरमुनिया
के रखल जा सकेला.
आज एतना
'उत्सव' हो रहल बाड़न
लगेला 'उत्सव' के
बहरी सच ही 'सच' हऽ.
मृदंग बजावत
जेकर अंगुरी
टेढ़ हो गइल बानीं
जे दुइ जून खइला के
मोहताज बा,
उनकरी ओर
केतना लोगन के धियान गइल बा?

हमरा बुझाला
कि हमनी के मानसिक दरिद्रता
आर्थिक दरिद्रता की अपेक्षा
ज्यादा घातक हऽ.
हम शोध के सिलसिला में
कोलाकता गइलीं.
उहाँ कालेज स्ट्रीट में
फुटपाथ पर शरत् साहित्य
बिकत रहे
आ जनसामान्य कीनत रहे.
कभी उहाँ रवीन्द्रनाथ ठाकुर
'जात्रा' के प्रस्तुति करत रहलीं
आ बड़हन काम खातिर पइसा
जुटावत रहली.
इहाँ
उत्तर आ मध्य भारत में
साइते केहू बड़हन लेखक-कवि
होखे, जे 'लोकनाट्य' या 'लोकवाद्य' से
अतना गहिर संपृक्ति राखत होखे.
एहीनाते
अन्य स्थान पर
सामा्नय लेखक आ कलाकारो के
संपूर्ण सम्मान मिलेला.
कई जगहिन पर तऽ
प्रतिदिन कविता लिखल जालीं
मुद्रित प्रकाशित होलीं
आ बिक जालीं.
लोककलाकार के स्थिति के
एह दृष्टि से भी
देखे के चाहीं.

गाँव की भीत पर
गोबर से लोकचित्र
बना दिहल जालें.
गाँव के अनपढ़ मेहरारुन के के सिखवले होखी -
सुग्घर चित्र बानवल.
उनके सहजे
परंपरा से प्राप्त भइल हवे -
ई उपलब्धि.
का कबीरदास
विश्वविद्यालय केढ़ शिक्षा प्राप्त कइले रहें?
का सूरदास
अलंकारशास्त्र के अध्ययन
कइले रहलें?
ना!
ई तऽ संगति के प्रतिफल रहे.
आज ऊँच शिक्षा के
अर्थवत्ता स्पष्ट ना होखे.
विश्वविद्यालय के शिक्षा ले के भी
हमनी के अंदर 'साहित्य बोध'
नइखे विकसल.
सच पूछीं तऽ
हमनी के एगो गहिर सुरंग में
घुसत जा रहल बानीं जा,
जहवाँ से
निकरला के कौनो
रास्ता नइखे लउकत.

अबहीं रस्तवे में
एक सज्जन मिललें.
ऊ समने वाले धोती कुर्ता वाले के घुरलें,
कुछ बुबुदइलें
आ चलि दिहलें.
बाद में ऊ सज्जन बतवलें
कि धोती कुर्ता वाले
परंपराप्रिय आ नया के विरोधी होलें.
समझ में ना आइल
कि का जवाब देईं?
संसार में
हिन्दुस्ताने अइसन देस होखि,
जहवाँ अपना जड़ के
गारी दे के 'नया' बनल जाला.
नयापन परंपरा के निषेध नइखे -
ओकर विस्तार हऽ.
परंपरा भी नयी-पुरान होत चलेलीं.
का दिन रात के विरोध हऽ?
हम तऽ अइसन ना सोचीलां.
हमरा दृष्टि में तऽ
दिन रात के गर्भ के उज्जर-प्रभा हऽ.

'एह बेर के के वोट देबू काकी?'
हम पूछलीं.
काकी कहलीं
'ऊहे घमसान के.
रात में दस किलो अनाज दे गइल बाड़न,
उनहीं के देबे के बा.
एगो लुग्गो दिहले बाड़न.'
रात के अन्हियार में
आज के लोकतंत्र के व्यौपार
चल रहल बा
हम सोचलीं.
गाँव के बगइचा में
रात में हम
उल्लू बोलत सुनले हईं.
उल्लुअन के कई प्रजाति होलीं.
किंतु सबके ध्वनि के निष्पत्ति
लगभग एक्के होला.
एह ध्वनियन द्वारा
पूरा परिदृश्य विषादमय
बना राखल गइल बा.
एह विषाद-दृ्श्य में
'सामान्य जन' केन्द्र बनेला.

एक तऽ तीत लौकी
दूसरे चढ़ल नीम के पेड़.
जनमुक्ति के चर्चा
रस ले के सुनेलन्
आ जन-द्रोह कइल जाला.
लाल-पीयर, नीला, हरियर झण्डा ले के
अपना कद बढ़ा लेला कुछ लोग.
आम आदमी कऽ कद
वइसन कऽ वइसने रहि जाला.

हमरा चारों ओर
जोर शोर से
हवा चले लगेले.
मों हो जाइले
वितर्कित.
मोर उलझन
के कारण
हवा चलल नइखे,
बल्कि ई कि
ईकहवाँ उड़ा
ले जइहें.
कवनो स्पष्ट दिशा नइखे.
हम हवा पर
अपना के
छोड़ भी ना सकीलाँ.
ई बड़ी नशीली हईं.
पाण्डुलिपि के पृष्ठ
इड़े लगलें.
लऽ, अब का होखी?
एह जहरीली
हवा से
पाणडुलिपि

देश
दुनहुन के
बचावे के परी.

जब ले
सामान्यजन
के
देश के केन्द्र में
वास्तविक रूप से
ना रखल जाई,
ई पृष्ठ
उड़त रइहें.
देश लोक खातिर
होखे के चाहीं.
कस्मे देवाय हविषा विधेम?
लोक देवाय हविषा विधेम.
कहीं अइसन
न होखे
लोकदेवता
के साथे
खूबसूरत छल होखे.
एह धूसर पृष्ठन के
लोकाक्षरन के
सहज
आ आत्मीय
बना के
रखे के होई.

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