कहानी
परबतिया
- डॉ जनार्दन राय
भोर होत रहे. मुरूगा बोलल - कुकू हो कू. लाली राम बाबा का इनार पर नहात खाने गवलनि - ‘प्रात दरसन दऽ हो गंगा, प्रात दरसन दऽ’. भोर का भजन में मस्त लाली के गवनई खाली उनहीं के ना, चिरई-चुरूंग, जड़-चेतन, मरद-मेहरारू सभकरा दिल में पइठि के गुदगुदी पैदा कइ दिहल करे. लाली गिरहथ रहलन. उनुकरा गांव का लन्द-फन्द से कवनो ढेर मतलब ना रहे. दिन में मजूरी आ सांझि खानेे नहा धो के अक्सर गावल करसु -
‘कह कबीर कमाल से, दुइ बात लिख लेइ.
आये का आदर करें, खाने के किछु देइ.’
कबीर कमाल से आ हम उनहीं का बाति के दोहासत बानीं - ‘जे केहू दुवारे आवे, ओके इजति से बइठाईं आ जवने नून रोटी बा, सिक्कम भर पवाईं.’ एह बानी के जे मानी, ओकरा पानी के रइछा परवर दिगार काहे ना करिहे !
एक दिन भोर में लालीबोे पिछुवारा से लवटला का बाद अपना पतोहि से कहली - ‘ए दुलहिन! दुअरिया में डोर बा, गगरिया लेइ के तनी इनरा से लपकल पानी ले ले आव, नाहीं त काली माई के छाक देबे में देरी हो जाई. कहिये के भरवटी ह, आजुले अबहीं पूरा ना भइल.’
का जाने काहें दो, ओह दिन उ असकतियात रहली बाकिर सासु का हुकुम के टारल उनुका बस के बाति ना रहे. डोर कान्हि पर, गगरी करिहांन पर धइ के चलि दिहली. गोड़ लपिटात रहे, पुरूवा के पिटल देहिं, पोर-पोर अंइठात रहे. लसियाइल त रहबे कइल बाकिर कवनो ढेर फिकिर ना रहे काहे कि उनुका पेट में भगवान के दिहल फूल अब विकास पर रहे. गोड़ भारी भइ गइल रहे. सासु का चुपे-चुपे कबो-कबो करइला के सोन्ह माटी जीभि पर धइ के सवाद लेइ लिहल करसु. जीव हरदम मिचियाइल करे. सासु एहपर धियान
ना देसु. बाकिर एक दिन रहिला में से माटी बीनि के दुलहिन अपना फाड़ में धरत रहली, एके लाली बो देखि लिहली आ पूछली, ‘काहो दुलहिन, कवनो बाति नइखे नू?’ एतना सुनते घुघुट काढ़त तनिकी भर मुसुकाई दिहली. पतोहि के हंसल आ संगही लजाइल चुप्पी संकार लिहलसि कि किछु न किछु बाति जरूर बा.
भइल का कि डोर में गगरी के मेहंकड़ फंसाई के इनार में लटकाइ के पानी भरल गगरी जेवहीं खिंचे के मन कइली, मूस के कुटुड़ल डोरि भक् से टूटि गइल. गगरी इनार में आ देहि जगति से भुइंया गिरि के चारू पले परि गइल. आंखि ताखि टंगा गइल. मुंह प एगो अजबे पियरी पसरि गइल. कुल्ला गलाली करे आ किछु लोग पानी खाति इनार पर जुटे लागल रहे बाकिर अबहीं मजिगर भीड़ ना रहे. जेतने रहे अरहि अरहि, हाय हाय करे खातिर कम ना रहे. बड़इया बो बड़ फरहर मेहरारू रहे. चट देने लाली का पतोहि के मुड़ी जांघि पर धइ के सुहरावे लागलि. मीजत, माड़त, सुहुरावत कवनो देरी ना लागल.
दू-तीन पहर में उनके देहिं कौहथ में आ गइल, तबले लालीबो पहुंचली आ कहली कि - ‘का ए दुलहिन, एनिये आके ई कवन मेला लगा दिहलू हऽ, तह के कवनो काम भरिये हो जाला.’ तले बुढ़उ कहलनि - ‘ना चुप रहबू, देखते बाड़ू की पतोहि जगति पर से ढहि के बेहोस परल बिये आ तूं अपना मन के पंवरी पसरले बाड़ू.’ एतना सुनते लाली बो हक्का-बक्का हो गइली आ रोवते में रागि कढ़वली - ‘बछिया हो, बछिया.’ तले फेरू बुढ़उ डपटलनि. लाली बो सिट्ट लगा गइली. उ चुप त जरूर हो गइली बाकिर कोंखि में परल फूल
के ले के चिन्ता गरेसले रहे, जवन कहे लायेक ना रहे बाकिर पतोहि के लूर सहुर गुन गिहियांव आ पानी खातिर अर्हवला के ले के लाली बो भितरे-भीतर कुंथत रहली. ना किछु कहिये जा ना रहिये जा. संपहवा बाबा, राम बाबा, सकड़ी दाई, काली माई, गंगाजी, सातो बहिनी, सत्ती माई, सभकर चिरउरी मिनती भइल. किछु देरी का बाद बड़इया बो कहलसि - काहो? देहिं काहें छोड़ ले बाड़ू? तनी टांठ होखऽ. हिम्मत बान्हऽ. देखते बाड़ू कि सासुजी छपिटाइ के रहि गइल बाड़ी . एतना सुनते पतोहि लमहर सांसि लेइ के
कहलसि - ‘ जिनि घबराईं, काली का किरिया से किछु ना होई. नहाईं, धोईं. छाक देईं, सब ठीक बा.’
पतोहि घरे गइल आ लाली बो ओह दिन भुंइपरी क के परमजोति का थाने गइली. सांझि सबेरे मनवती - भखवती होखे लागल. पियार से पखाइल, सनेह से संवारल, चूमल-चाटल देहि देखे लायेक हो गइल. सुख के दिन सहजे सवरे लागल. दुख बिला गइल. दिन बीतल देरी ना लागे. एक दिन उहो आइल जब भोर में लाली बो के पतोहिं का कोंखि से लछिमी के जनम भइल. धूमन बाबा बीतल बातिन के त बतइये देसु, अगवढ़ के जेवन फोटो खींचस उ साल छव महीना में साफे झलके लागे. एसे उनुकर मोहल्ला में बड़ा इज्जत अबरूह रहे. उहां का ए कदम साधु मिजाज के असली फकीर रहलीं. का मियां-हिंदू, ठाकुर-ठेकान, बाम्हन-भुइहार, धुनिया, नोनिया, कमकर, कुर्मी, कोहार, सभकर भला मनावल उहां के सहज सुभाव रहे. पूख नछत्तर में जनमल परबतिया अब धीरे-धीरे दिने दूना रात चउगुना संयान होखे लागल. किछु बूझल, समुझल, समुझावल आ अपना बेहवार से दूसरका के खुस कइ दिहल ओकरा खातिर सहज बाति रहे.
टोल, महाल, आपन, पराया, घर-दुवार सभ के अपने बूझे. अब अइसनों दिन आइल जे एकरा से थाना, पुलिस, पियादा, सभ केहू थहरा जा. थथमि जा. पढ़ि-लिखि के परबतिया परिवार के चौचक बना दिहलसि. माई-बाबू, घर-गांव, सभकरा संगे रहते परबतिया कविता करे के सीख लिहलसि. समाज में इज्जत के डंका बाजि गइल. एक दिन गांव के परधानों बनि गइलि. मुखिया, हाकिम-हुकाम सभे केहू आवे लागल. कविताई का ललक में एक दिन ‘परबतिया’ परानपुर का पोखरा पर बनल इसकूल का कवि सम्मेलन में चलि गइल आ सुर-साधि के गवलसि -
हमरे सिवनवां में फहरे अंचरवा,
फहरि मारेला हो, लहरि मारेला!
एतना सुनते ‘परबतिया’ का आंचर पर मुखिया जी के क्रूर नजर परि गइल आ ओही दिन से ओके धरे बदे कवनो कोर कासर ना छोड़लनि. गोटी बइठावे लगलन आ अइसन बइठल कि मुखिया जी एक दिन मंत्री बनि गइलन. अब ‘परबतिया’ पर डोरा डाले में चार चान लागि गइल. दिन-दिन परबतिया बढ़े लागल. रूप, गुन, जस, पद, मये में विस्तार होखे लागल. ‘परबतिया’ गांव में सड़क बनावे बदे एक दिन मंत्री जी का बंगला पर चढ़ि गइल. ‘परबतिया’ आखिर मेहररूवे न रहे. रूप गुन रहबे कइल. जाने-अनजाने ‘परबतिया’ मंत्री का कामातुर हविश के शिकार हो गइल. लोभ-लालच में उ किछु ना कहलसि. कुंवार मंत्री जी बियाह के प्रस्ताव दे के ‘परबतिया’ के घपला में रखले रहि गइलन. पेट में परल बिया जामे लागल. जइसे-जइसे दिन बीते लागल चिंता बढ़े लागल. एक दिन परबतिया हिम्मत बान्हि के बियाह वाला प्रस्ताव के रखलसि. मंत्री जी टारे लगलनि आ एक दिन उहो आइल जब उ अपना परबतिया का पेट में परल पाप के छिपावे बदे पोखरा में अपना गुरूगन से जियते गड़वा दिहलनि.
लइका, बूढ़, जवान, पुलिस, पियादा, गांव, जवार सभ जानल एह कांड के. बाकिर मंत्री जी का डर से केहू सांसि ना लिहल. उनुकरा पेशाब से दिया जरेला. डर का मारे अइसन जनाला कि हवो थाम्हि जाई. नीनि में परल परान कबो-कबो अइसन चिहुकेला जइसे केहू झकझोरि के जबरिया जमा देले होखे. जिम्दारी टूटि गइल. देस अजाद हो गइल. सभ केहू अपना घर-दुआर के मलिकार हो गइल. कहे सुने के अजादी हो गइल. बाकिर ई नवका करिक्का अंगरेज फफनि के बेहया लेख एतना जल्दी पसरि गइलनि स कि किछु कहात नइखे.
सुराज जरुर मिलल, बाकिर एह बदमासन का चलते आम आदमी का जिनिगी में कवनों बदलाव नइखे लउकत. हमरा परोस का परबतिया अइसन गंवईं के लाखन गुड़िया, धनेसरी, तेतरी, बहेतरी, अफती, लखनवती, लखिया, हजरीआ रोज रोज बदमासन के हविश के शिकार हो रहल बाड़ी स. बाकिर मंत्रीजी का तुफानी हवा का आगे गरीबन क बेना क बतास का करी? शासन पर काबिज बदमाश, थाना पर मनियरा सांप लेखा फुुंफुकारत थानेदार, पाजी पियादा, नशा में मातल मंत्री, इसकूल में बदहवाश मुदर्रिश, बेहोश वैद जीप कार के नसेड़ी डरेबर, केकर-केकर बाति कहीं, सभे कहूं कवनो अनहोनी का डर से चुप्पी सधले बा. नाहीं त सुपुटि के जीव चोरावत बा. अइसना बदहाली में केहू किछु कह ना पाई, बाकिर हमरा इत्मीनान बा कि अइसहीं मनमानी-बेवस्था ना चली. एक न एक दिन बदलाव जरूर आई.
पितरपख का निसु राति में पोखरा का जलकुंभी से कबो-कबो छप्प-छप्प क सबद सुनाई परेला. कबो-कबो त एको जनमतुआ निराह राति में पहर-दू-पहर भर केहां-केहां करेला. अइसन बुझाला कि ओह जनमतुवा के चुप करावे बदे परबतिया पुरूवा हवा का पंख पर चढ़ि के मंत्री जी से बदला लेबे खातिर छिछियाइल फिरेले. जब भोर होखे लागेला त जनाला कि जनमतुआ थाकि के सुति गइल आ परबतिया एक दम शांत भाव से लिखल चिट्टी पढ़ि-पढ़ि के सुनावे लागे ले -
प्रिय मंत्री जी!
याद बा नू उ दिन जब आप हमरा संगे..... वादा कइले रहलीं कि सूरूज एने-ओने भले हो जइहें, चान भलहीं टसकि जइहें, ध्रुवतारा खिसकि जाई, गंगा के धार बदल जाई, बाकिर हमार पियार अमिट रही, अमर रहि. का उ दिन भुला गइलीं ? हम आपे का इंतजारी में पोखरा का कींच-कांच, पांक पानी में परल बानीं. का होई ए देहि के ? का होई एह अबोध जनमतुआ के ?
ई का बिगरले रहे जे एके आप एह दिन के देखवलीं ? आप याद राखीं अर्जुन का बेटा का माथे मउर ना बन्हाई, कर्ण के कवच भलहीं कवनों कामे ना आई, बाकिर आप इहो
समुझि लेइब कि कबुर का आह से उपजलि आग में पूंजीवादी बेवस्था जरि-जरि के राखि हो जाई आ माथ के मुकुट गंगा का अरार लेखा भहरा के मटिया मेट हो जाइ. देस समाज गांव गंवई के बेवस्था चोटी से ना चली. इहो जाने के परी की शासन वेवस्था में लागल अदीमी के लंगोटी के बेदाग राखे के पारी आ बेदाग ना रही त झंउसहीं के परी.
आपे के परबतिया
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- डॉ जनार्दन राय,
काशीपुर नई बस्ती, कदम चौराहा,
बलिया - 277 001
(भोजपुरी में दुनिया के पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर नवम्बर 2003 में प्रकाशित भइल रहल.)
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