ललित निबन्ध
नीमिया रे करूवाइन
डा. जनार्दन राय
दिन भर छिछिअइला से थाकि के एकदम बेबस हो गइल रहे. किछु करे के बेंवत ना रहे. लमहर सीवान में घुमते-घुमत सांझि हो गइल. एतने होला कि आपन खेत, बन बगइचा एक बेरि आंखि में उतरि आवेला. उहो देखेला आ अपनहूं देखि के आंखि में जुड़ाई परेला.
नीनि आइल निमन ह. जेकरा आंखि से इहां का हटि जाइला ओकर खाइल-पियल, उठल-बइठल, चलल-फिरल, मउज-मस्ती, हंसी-मजाक कुल्हि बिला जाला. अइसन जनाला कि किछु हेरा गइल बा, ओके खोजे में अदीमी रात-दिन एक कइले रहेला. निकहा दिन से हमरो नीनि उचटि गइल बा बाकिर हम केहू से किछु कहिलां ना. सोचीलां कि बूढ़ भइला पर अइसन होखल करेलां. हमरा संगे कवनो अजगुत नइखे भइल. जे साठि-सत्तर से हेले लागेला उ कवनो अनहोनी का इन्तजार में आपन आंखि बिछवले रहेला, रहता देखत रहेला, हित-नात, संगी-साथी, निमन-बाउर सभे किछु एही सभ का माथे रहेला. एसे सोचत-विचारत रहला का बजह से, उहां का आपन आसन जमा ना पाइलां. कबो कबो त अइसन होला कि जब नीनि जनमतुवा का आंखि पर अइला से असकतियाये लागेले त अजिया, महतारी, फुवा लोगन का काफी मसक्कत करे के परेला. उनुकरा मनावन में ओझइती का संगे-संगे गीत गवनई में जेवन लोरी दादी का मुंह से निकसे ले ओकर धुनि, रस, गंध, अजबे सवदगर होला -
‘‘आउ रे निनिया निनरबन से,
बबुआ आवेले ननिअउरा से.
आउ रे निनिया निनरबन से. ’’
चइत महीना रहे. कटिया लागल रहे. ताल में मसुरी पाकि के झन-झना गइल रहे. टांड़ पर पाकल रहिला के ढेढ़ी झरत रहे आ ओने दियरी में अबहीं गोहूं चना पाकल त ना रहे बाकिर होरहा हो गइल रहे. एक ओर कटनी आ दुसरकी ओर होरहा का लालच में मन कसमसा के रहि गइल. अकसरूवा जीव थाकल, खेदाइल देहि सांझि खने दुवारे डसावल बंसहट पर परि गइल. अकसरूवा हो खला का नाते कबो-कबो डेरा डांड़ी पर अइसहूं रूकि जाये के परेला ए वजह से हमरा घरनी का कवनो चिन्ता-फिकिर ना रहेले. भइल अइसन कि नीनि ओह दिन अपना गिरफ्त में एह कदर लिहलसि कि किछु सांवा-सुधि ना रहि गइल. अइसन बुझाइल कि -
‘निनिया आइल बा सुनरबन से. ’
भइया संगे बटवारा कवनो आजु के ना ह. ढेर दिन बीति गइल बाकिर हार आ हंसुली के ले के भउजी संगे जवन उठा-पटक भइल ओकरा से तनी मन में गिरहि त परिये गइल.
नीनि ना खुललि. देरी ले सुतल देखि के भइया का मन में किछु अइसन बुझाइल कि, ई काम त कबो के कइले ना ह, मेहरि का कहला में परि के बांटि त जरूर लिहलसि, बाकिर दिल जगहे पर बा. बोलसु त नहिये बाकिर बुचिया, भउजी आ भइया तीनू जाना के फुसरु -फुसरु बोली त सुनाते रहे. चइत के मुंगरी से थुराइल देहिं कवहथ में ना रहे. दरद त रहबे कइल बाकिर देहिं पर परल नीमि के फूल ओकर गंध, बयार का पांखि पर चढ़ के तन-मन के सुहुरा के जवन गुदगुदी पैदा कइलसि ओही दिने बुझाइल कि -
नीमिया रे करूवाइन तबो सीतल छांह
भइया रे बिराना, तबो दहिनु बांह.
टेढ़की नीमि के दतुवन, ओकर खोरठी, पतई, निबावट, लवना, छांह हमनी खातिर केतना आड़ बा, अब तनी-तनी बुझाये लागल ह. सांझि होते पतई का फुनुगी पर बइठल चिरइन के गिरोह, उन्हनी के खोता, तितिली आ कबे-कबे भुलाइल भंवरन के मटरगस्ती केतना नीक लागेले, ई कहे के बाति नइखे. ओह दिन त हम अपना घरनी का कहला में परि के नीमि का छाती पर जवन टांगी चलवलीं कि उ कटा के बांचि त जरूर गइल बाकिर हमरा छाती में जवन छेद भइल कि आजु ले ना भराइल. हमरा खूबे इयादि बा जब नीमि का पुलुई पर बइठि के उरूवा बोलल -
‘उ----उ----उ----उ
हमार घरनी कहली कि इहनी क बोलल नीक ना ह. बाकिर उनुकरा बाति पर बाति बइठावत बंसी साधू कहलनि -
‘ई गियानी हवन जा. बोलला के मतलब ई होला कि सजग हो जा, किछु अइसन होई कि टोलमहाल में कवनो दुख, बिपति जरूर आई. ई आवे वाला बेरामी, बिपदा, बाढ़ि सूखा, महामारी के बता के पोढ़ होखे के शक्ति देला. ’
नीमि के डाढ़ि उरुवा के ठांव बा. गौरइया के खोंता, आ माता दाई के झुलुहा बा. त एकर पतई दवाई आ टूसा टानिक बा. एकर दतुवन मुंह बसइला से लेके पेट का हर बेरामी के अचूक दवाई बा. इहे ना, एकरा सूखल डाढ़ि पर कोर पतुकी में बनवला भोजन के खाये वाला कइसनो कोढ़ी होखो, एक बरिस में जरूर ठीक हो जाई. एही से एकरा छांव में बइठि के गांव के गोरी जवन गीति गावेली स ओकर अजबे रस बा. एह छांव में संवसार के संवारे वाली माता दाई खुद बसेरा करेली, एही से भर नौरातन इनिका गाछ से छेड़-छाड़ कइल ठीक ना मानल जाला. गांव गंवई के माई-बहिन जब गावेली स त रोंवा भभरे लागेला-
नीनिया के डाढ़ि मइया!
लावेली झुलहु वा, हो कि, झूलि-झूलि ना.
मइया मोरी, गावेली हो
गीतिया कि, झूलि-झूलि ना.
झूलत-झूलत मइया के
लगली पियसिया, कि बूंद एक ना!
मालिनि पनिया पियाव, मोके बूंद एक ना.
माली-मालिनी मिलि क महामाया का किरिपा से नीमि के सींचत जबन रूप देले बा ओही तरे मातादाई एह संवसार में रसे-बसे वाला हर जीव जंतु के जिये संवरे, सोचे समझे के बल, बुधि देले बानी. जरूरत एह बाति के बा कि इंसान के इंसान बुझी जा. भाई के कसाई समझि के काटे के ना ह. भाई-भाई ह. संबंधन का बीच में खटाई डाले के बाति ना होखे के चाहीं. घाम सहि के छांह दिहल आ दुख काटि के सुख बांटल असली धरम ह. सच-सच कहल जाय त आपन करमे असली धरम ह. एह राह-रहनि से जे रही, ओकरा ‘करनी’ से घरनी आ धरनी दूनो के राहि रसगर हो जाई. संवसार मसान होखे से बंचि जाई. एके बंचावे बदे जे दुइ कदम चली, माई के असली बेटा उहे ह -
‘यः प्रीणयेत् सुचरितैः पितरं स पुत्रो’
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डॉ जनार्दन राय, नरही, बलिया-2177001
(अंजोरिया डॉटकॉम पर अगस्त 2003 में अंजोर भइल रहल ई लेख.)
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