दू गो गजल
- पद्मदेव प्रसाद ‘पद्म’
(एक)
कल तक रहल जे पावा, उ सेर हो गईल.
निपटे रहल गंवार जे, अहेर हो गईल .
भांजत रहल जे हरदम, छाती उठाइ के.
देखत मतर में बाज से, बटेर हो गईल..
झोली जे हाथ ले के, घर घर घूमत रहे.
झेपते पलक के, बिड़ला कुबेर हो गईल..
ताकत से जे कि अपना, ढकले रहे गगन.
मउवत का पांव खींचते, ऊ ढेर हो गईल..
आसन पर ऊंच बईठल, जे कि रहे धधात.
लुढ़कते जमीं पर, गउरा गंड़ेर हो गईल..
के बा समर्थ अईसन, जे ना उठल गिरल.
राजा रहे जे कल तक, ऊ चेर हो गईल..
( दू )
सबुर बाटे हमके गिरानी से अपना.
सबुर बाटे टूटल पलानी से अपना.
अब सबुर के सिवा बाटे रह का गईल.
सबुर बाटे घीसल जवानी से अपना.
कुछ बतवनी, छिपवनी भी उनुका से हम.
सबुर बाटे बीतल कहानी से अपना.
दर्द आपन सुनाके हम कर का सकीं.
कहल कुछ ना चाहीला बानी से अपना.
सबे बाटे जानत बतावे के का बा .
लुटाईं ना राहे पर पानी के अपना.
लिखके कविता कहानी गजल जात बानी.
सबुर बाटे एही निशानी से अपना.
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बुढ़नपुरवा, बक्सर, बिहार
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(दुनिया के भोजपुरी में पहिलका वेबसाइट अंजोरिया डॉटकॉम पर ई जनवरी 2004 में अंजोर भइल रहल)
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